Saturday, May 31, 2014

"वैकल्पिक बौद्धिक एवं नीतिगत अवधारणाओ के प्रतिपादन का अवसर"

"वैकल्पिक बौद्धिक एवं नीतिगत अवधारणाओ के प्रतिपादन का अवसर" 

“अब आगे संघ क्या करेगा?“ यह प्रश्न पूछा जाने लगा। जब केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनते ही यह प्रश्न पूछा जाने लगा कि अब संघ क्या करेगा। यह अस्वभाविक नहीं है। जैसी धारणा होती है वैसा ही जिज्ञासा और सवाल उपजता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत के विमर्श में तथ्यों, वास्तविकता, असलियत से कम छवि, धारणा और अभिप्रायों से कहीं अधिक देखा जाता रहा है। धारणा यही है कि संघ पीछे से राजनीति करता है और छवि यही बनायी गयी है कि यह अल्पसंख्यकों के प्रति असहनशील और संवदेनहीन है। इसलिए उपरोक्त सवाल का पहला पक्ष “रिमोट कन्ट्रोल“ सिद्धांत पर आधारित है। क्या यह सरकार चलायेगा? इस प्रश्न का उत्तर जो भी हो अविवादित नहीं हो सकता है। परन्तु दूसरा प्रश्न कहीं अधिक गम्भीर और अहम है। इसका भविष्य का वैचारिक एजेंडा क्या होगा?

पहला प्रश्न इस बात पर आधारित है कि संघ का मूल पिंड राजनीतिक है। जबकि सच्चाई यह है कि संघ और राजनीति का संबंध परिवर्तनशील है। यह स्थायी भाव नहीं है। यदि स्थायी होता तो संघ स्वतंत्र शक्ति के रूप में खड़ा नही होता। संघ की स्थापना सन् 1925 में हुई तब से दर्जनों छोटे-बड़े संगठनों का उत्थान और पतन हुआ। परन्तु संघ की जमीन दिनों-दिन बढ़ती ही गयी। समाचारों में संघ सिर्फ सत्ता के गलियारों में जाना-पहचाना जा रहा है परन्तु इसका वास्तविक कार्य दलितों, आदिवासियों, मजदूरों, विद्यार्थियों के बीच फैला हुआ है। संघ राजनीति को अपने अनुकूल नहीं समाज सापेक्ष बनाने के मकसद से दखल देता है। लेकिन यह दखल इसके मूल प्रकृति को नहीं बदलता है। राजनीति से संबंधित सन्यांस लिये हुये लोगों एवं संगठनों को राजनीति में दखल देने के लिए बाध्य होना पड़ा। जयप्रकाश और विनोबा भावे इसके उदाहरण हैं। आजादी के पूर्व पंजाब के आर्य समाज और पंजाब कांग्रेस के बीच अंतर समाप्त हो गया था। लाला लाजपत राय इसका उदाहरण हैं।

भाजपा से संघ का संबंध कांग्रेस और सेवादल का जैसा संबंध न था, न है न हो सकता है। सामाजिक-सांस्कृतिक प्रवाह से राजनीति उत्पन्न होती है, और उसका निरंतर परष्किार होता, उसकी दिशा निर्धारित होती है। संघ-भाजपा संबंध इसका जीता-जागता उदाहरण है। जिस संघ को जमींदारों और पूंजीपतियों का संगठन कहकर आलोचना की जाती थी उसी संघ ने जनसंघ को जमींदारी उन्मूलन विधेयक का समर्थन करने की नीतिगत प्रेरणा दी थी। राजस्थान में जनसंघ ने अपने शैशवकाल में ही आठ में से पांच विधायकों को इसलिए दल से निकाल दिया था कि वे जमींदारी व्यवस्था के समर्थक थे। एक ओर घटना उल्लेखनीय है। सन् 1945 के चुनाव में नागपुर में संघ के नजदीकी बाबा साहेब घटाटे ने चुनाव लड़ने का निर्णय लिया। सन् 1945 की राजनीतिक परिस्थिति में कांग्रेस का कमजोर होना देश के हित में नहीं था और संघ ने घटाटे को उम्मीदवारी वापस लेने का निर्देेश दिया। और ऐसा हुआ भी। इस पर संघ के नजदीकी और हिन्दू महासभा के नेता डा. बी.एस. मुंजे ने अपनी डायरी में लिखा था कि “मैं आश्चर्यचकित हूं कि संघ इस प्रकार का वाह्यात काम (थ्।त्ब्म्) करता है।“ वही मूंजे सन् 1934 में चुनाव के दौरान संघ के द्वारा उनका और उनके समर्थन में प्रचार के लिए आए मदन मोहन मालवीय को विरोधियों के पथराव से बचाने के लिए अनुग्रहीत थे। जो आज संघ से प्रसन्न है वह कल भी संघ के प्रति वैसा ही भाव रखेगा यह कोई ज्योतिषी नहीं बता सकता है। संघ परजीविता के भाव से मुक्त संगठन है। इसी में संघ आगे क्या करेगा इस प्रश्न का भी उत्तर नीहित है। यह प्रश्न पहली बार सामने नहीं आया है। हिन्दू महासभा संघ में अनेक वैचारिक समानता थी। महासभा के पास बड़े साइन बोर्ड वाले नाम थे- सावरकर, भाई परमानन्द, डा. मुंजे आदि। उनके समानान्तर संघ के पास एक भी नाम नहीं था। उनका दबाव था संघ महासभा के साथ काम करे। उन्हें निराशा हुई। तब उनके द्वारा संघ की गई आलोचना को इतिहास ने गलत साबित कर दिया।

आजादी से पूर्व 11 फरवरी, 1947 को सेन्ट्रल एसेम्बली में गृहमंत्री ने बताया कि किसी भी प्रांत ने संघ को साम्प्रदायिक होने या दंगा में लिप्त होने का रिपोर्ट नहीं दिया। आजादी के बाद कांग्रेस ने प्रस्ताव पारित कर संघ को “राष्ट्र निर्माण“ के नाम पर पार्टी में आने का न्योता दिया वह निष्प्रभावी रहा। सन् 1977 में जनता पार्टी बनी। जनसंघ सरकार का मजबूत घटक था। तब संघ पर दबाव था कि अपने अस्तित्व पर विचार करे। पर संघ के लिए यह हास्यास्पद प्रस्ताव था। राजनीति ने कभी भी दुविधा उत्पन्न नहीं की है।

वर्तमान राजनीतिक परिवर्तन अहम और गुणात्मक रूप से भिन्न है। एक विचारधारा पर आधारित पार्टी को जनादेश मिला है। इस परिवर्तन के मायनों को समझना पड़ेगा। साठ के दशक के बाद बौद्धिक जगत पर माक्र्सवाद-नेहरूवाद का प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ता गया। राष्ट्रवादी विचारक के.एम. मुन्शी का विद्या भवन इसके प्रतिरोध की अंतिम कड़ी था। पूरा विमर्श वैचारिक रूप से एकतरफा एवं सत्तावादी राजनीति से प्रेरित हुआ। इस विमर्श ने संघ के विचारों को विमर्श का हिस्सा नहीं बनने दिया। उसके स्थान पर महिला विमर्श, दलित विमर्श की तर्ज पर संघ विमर्श शुरू हो गया। अर्थात् संघ कितना अच्छा कितना बुरा? बौद्धिक विमर्श कितना असंतुलित और विकलांगता का शिकार था इसका प्रमाण है संघ के समर्थन में कुछ छपना इसके समर्थक और विरोधियों दोनों के बीच कौतूहल का विषय होता रहा।

पिछले दशकों में देश का आर्थिक विकास, औद्योगिक नीति जैसे विषय उपेक्षित रहे और पूरी बौद्धिकता साम्प्रदायिक-धर्मनिरपेक्षता के सवाल के चारों ओर घूमने लगे। ऐसा लगा कि भारतीय राज्य, समाज और राष्ट्र कल ही बना हो। इसमें धर्म निरपेक्षता स्थापित करने की मशक्कत चल रही है। पिछले दशक में सच्चर कमेटी, धर्म परिवर्तन, अल्पसंख्यक तुष्टीकरण जैसे विषय संस्थागत हो गये। यहां तक कि अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय तक बना दिया गया था। अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक अवधारणा को संघ ही नहीं भारत की संविधान सभा ने भी देश की एकता व अखंडता के लिए जोखिम भरा बताकर नकारा था पर वह स्थायी भाव बनता चला गया। मोदी सरकार के निर्माण ने ऐसी नकारात्मक प्रवृत्तियों एवं भावों को सहज रूप से ध्वस्त किया है। इसके लिए जनता का जनादेश भी है।

एक लोकप्रिय राजनेता का व्यक्तित्व विचार और वाणी अनेक सवालों का उत्तर भी होता है। इस संदर्भ में मोदी का वाराणसी का भाषण उल्लेखनीय है। गंगा-प्रदूषण का सवाल तो अहम था ही उन्होंने जिस सहजता से भारतीय इतिहास के असंतुलित स्वरूप पर प्रकाश डाला उसे रेखांकित करने की आवश्यकता है, उन्होंने भारत की राजनीति और इतिहास के पन्नों में श्री श्याम जी कृष्ण वर्मा जैसे क्रांतिकारियों के योगदानों के प्रति उपेक्षा का प्रसंग उठाया। यह घटना मात्र नहीं है। यह सिर्फ उनके मन की पीड़ा नहीं बल्कि उस शासकीय विचाराधारा पर सकारात्मक प्रहार भी है जो संकीर्णता के आयने में इतिहास और राष्ट्र को देखता रहा। तिलक युग का उन्होंने जिस सम्मान के साथ उल्लेख किया वह विमर्श के गुणात्मक बदलाव का पहला बड़ा संकेत है।

संघ को सन् 1948 से निरंतर नकारात्मक प्रवृत्तियों से लड़ने के लिए अपनी ऊर्जा क्षय करना पड़ता रहा। इसने एक आलसी और आरामतलब सेकुलरवादी बौद्धिकता को जन्म दिया। यह यथार्थ से कटता गया। संघ विमर्श इसकी मूल संपत्ति बन गयी। यही उसके प्रगतिशील समाजवादी और जनवादी होने का आधार बन गया। उन्हें लगता रहा कि संघ परास्त हो रहा है। पर वे गांवों, जंगलों, रेगिस्तानों में बढ़ते भगवा प्रवाह और प्रभाव को देख नहीं पाये।

संघ राष्ट्र निर्माण को समाज-संस्कृति की रचना से जोड़ता है। और इसीलिए सकारात्मक कार्यों में इसकी तत्परता देखी जा सकती है। सन् 1977 में जनता सरकार ने प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम चलाया जिसे संघ के स्वयंसेवकों ने सफल बनाया तो आरोप लगाया गया कि संघ का घुसपैठ हो रहा है। इतिहास बोध इसे गलत साबित करता है। नेहरू सरकार के खाद्य सचिव ने नेहरू को लिखा था कि खाद्य अभियान में संघ से सहयोग की आवश्यकता है। संघ सन् 1948 में लगे प्रतिबंध से जला-भुना था। पर नेहरू के आग्रह पर संघ इसमें कूद पड़ा। क्या तब इसका घुसपैठ नहीं था? देश के सामने जनसंख्या, पर्यावरण, आर्थिक विकास जैसे मुद्दे हैं जिसमें सकारात्मक सामाजिक-सांस्कृति पहल की आवश्यकता है। जमीनी स्तर पर बढ़ती आर्थिक असमानता संघ को उद्वेलित कर रहा है। नयी परिस्थितियों ने संघ को सकारात्मक पहल वैकल्पिक बौद्धिक एवं नीतिगत अवधारणाओं के प्रतिवादन का सुअवसर दिया है। यदि संघ का सत्तावादी मिशन होता तो संघ में ठहराव आ जाता पर इसके सभ्यताई मिशन में सरकार का बनना-बिगड़ना अहम प्रश्न तो है पर अंतिम प्रश्न नहीं है।

Sunday, May 11, 2014

Modi's Emergence Holds Lessons for the Media

Modi's Emergence Holds Lessons for the Media


Narendra Modi’s emergence in national politics holds out one important message for both public figures and India’s media equally. He has been the only political leader to be subject to a systematic, organised and incessant media and academic onslaught for his alleged role in the 2002 (Gujarat) riots.
The decade-long campaign of calumny against Modi outdoes even the mud of the Indian Oceanin its abusive content. Undoubtedly, press freedom and autonomy is a precondition for any liberal democracy. But nothing is absolute in an objective world. Context and reference cannot be dispensed with in any discussion on press freedom. The anti-Modi campaign is part of the ideological predisposition which a predominant section of the media is afflicted with. Like Indian politics, the media too has imbibed the prejudice of anti-RSSism. This is evident on all occasions whenever the RSS has been decisively involved in any political process. The Janata government’s crisis in 1978-79 on the question of relationship with the RSS saw a big section of media becoming a Trojan horse of anti-RSS forces. During the Ramjanmbhoomi movement in the 90s, the media underwent a division, with the English and vernacular press on diametrically opposing sides. Consequently, it morphed into a half-hearted debate on the role of ideology in reporting. It is the ascendency of Hindutva that has become unpalatable for this crowd. The media was once again used to propagate and orchestrate “Hindu terrorism” in the popular mind, though in vain. RSS’ connectivity with the masses demolished this media assault.
The media also endeavours to suppress ideology and project personality. It deigns approval when Modi talks developmental issues; however, the gloves are off when he defines himself as a Hindu nationalist or
reveres Lord Rama.
Modi walked out of an interview in less than five minutes on October 20, 2007 when a senior 
journalist
 tried to impose his perception and views on him about the Godhra riots. He drew ire for his ‘harsh’ behaviour. One would do well to recall Dr Ambedkar’s views in the Constituent Assembly that individual views and freedom of press are not different. The latter is synonymous with freedom of expression. In post-colonial India, clash between Western and Indian ideologies was inevitable.

Sardar Patel was also information and broadcasting minister, yet never used media to mould his image. His agenda was national reconstruction. Neither did he ever make any decision worrying about his media image. On many occasions he was labelled fascist and communal, but remained unperturbed; never counter-attacked the press.
Anti-RSSism in media complements the Nehruvian and Marxist grip on social science. Media discourse, therefore, has to be free of bias. No discourse should have an adverse impact on the freedom of press. The terms ‘textbook fascist’, ‘bully’ and ‘absolute authoritarian’ have been floated by academics and parroted by media. Prestigious institutions like Nehru Memorial Museum library provided patronage to anti-RSS and anti-Modi academics. The media is an important tool for transformation in society, and its freedom can be best ensured by its own credibility and self-restraint. It would do well to recall its once glorious role.
For instance, during the freedom movement, nine editors of the Swarajya published from Allahabad, in 10 years, suffered imprisonment on charges of sedition. An advertisement for its editor stated the service conditions as: “Two dry breads, one glass of water and 10 years imprisonment for every editorial.” In post-independent India, the media played a decisive role during the Emergency, and in national politics. It must shed its blinkers, i.e., its ideological predisposition which disconnects it from indigenous ideology and the masses.