Wednesday, January 15, 2014

जनआन्दोलन का ब्याकरण



जनआन्दोलन का ब्याकरण 



जन आंदोलनो से राजनीति  जन्म लेती है परन्तु इसके नायक को हमेशा पद प्राप्ति को कभी उद्देश्य नहीं बनाना चाहिए।  इतिहास में वे लोग ही समाज और राजनीति  को जड़ता से बाहर निकलने में सफल हुए हैं जो स्वयं  सत्ता के भागीदार नहीं बने।  चाहे गांधी हो या जे पी या विनोबा।  जन आंदोलनो का अपना व्याकरण  होता है।  जे पी ने जब  बिहार छात्र आंदोलन  की  अगुआई की थी तब उन्होंने परिवर्तन के लिए इच्छुक और प्रतिबद्ध सभी ताकतो को एक जुट किया। विद्यार्थी परिषद् और समाजवादी युवजन सभा दोनों व्यवस्था विरोधी आंदोलनो में शरीक हुए।  बाद में जनसंघ और सोशलिस्ट पार्टी और कोंग्रेस से विद्रोह किये लोग उसमे शामिल हुए।  प्रभाव कितना  है इसका उदहारण इस आंदोलन के दौरान मिलता है।  जनसंघ ने विधान सभा से इस्तीफ़ा देने की बात की।  जब 11 विधायको ने ऐसा करने  पर आपत्ति  की तो उन्हें पार्टी से निकाल  दिया गया।  इस आंदोलन में देश में जे पी व्यवहारिक क्रांतिकारी  थे।  उन्होंने एक बार दलविहीन राजनीति की बात की थी और अनुभव किया कि संसदीय जनतंत्र दलीय व्यवस्था के बिना अराजक हो जायेगा। जे पी आंदोलन ने देश को कई सामंतवादी , पुरातनपंथी सोच से बाहर  निकालने का काम किया। जे पी आंदोलन पर जितना शोध किया जाना चाहिये  था नहीं हुआ।  जे पी ने भागलपुर में भाषण देते हुए जनेऊ तोड़ने की बात कही थी।  इसके पीछे वे कथित निम्न जातियो को कथित द्विज के बराबर का भाव जगाना चाहते थे।  मेरी आयु छोटी थी।  छोटी उम्र में उपनयन हो गया था।  और मैंने वह आवाज सुनकर जनेऊ उतार दिया। परवर्तन और अच्छाई की बात छोटी उम्र के लोगो को समझ में आती है इसलिए आज जब अन्ना  या केजरीवाल की लोकप्रियता कम उम्र के बच्चो में दिखाई पड़ता है तो मुझे आश्चर्य नहीं होता है। अमेरिका के सिविल वार में भी कम उम्र के बच्चे शरीक हुए थे।  1942 के आंदोलन में कम उम्र के लोगो ने बड़ी संख्या में भागीदारी दिखायी थी।  
अरविन्द केजरीवाल ने अन्ना हजारे  के साथ जब  आंदोलन  करने के लिए कदम बढ़ाया तो उम्मीद यही बंधी थी कि एक बार फिर  जन आंदोलन व्यवस्था परिवर्तन के खिलाफ  होगा जो समाज और राजनीति दोनों का परिष्कार करेगी। अरविन्द और उनकी टीम ईमानदारी से मेहनत  कर रही थी।  सबसे बड़ी बात है कि लोग परम्परागत राजनीति  में पैसे के प्रभाव और मूल्यो में गिरवाट से चिंतित ही नहीं क्रोधित और उतावले हैं।  दस साल का वक्त छोटा नहीं होता है।  इन सालो में आर्हतिक नीतियो ने अमीरी बढ़ाई  है और आम लोगो को अस्तित्व से लड़ने के लिए छोड़  दिया है। राजनीतिक  व्यवस्था में जो सामाजिक आधार और सोच वाले लोग हैं वे इस समस्या से जोड़ नहीं पा रहे हैं।  एक दूसरा वर्ग भी विकसित हुआ।  यह वर्ग ब्रिटेन के बीसवी सदी के फेबियन समाजवादी की तरह है। सुविधा सम्पन्न वर्ग है परन्तु उसमे सामाजिक सरोकार भी है। अपनीं पूंजीवादी सुख सुविधा बनाये रखते हुए यह वर्ग परिवर्तन के लिए इच्छुक है। इसीलिए अन्ना  के आंदोलन में हासिये के लोग और फेबियन दोनों थे।  वे भी थे जो महीने के पांच हजार और  वे भी थे जो महीने में पांच लाख  कमा  रहे हैं।   
अन्ना -अरविन्द का आंदोलन सडको पर शुरू हुआ।  विचार मंथनो के दौर से नहीं गुजर पाया।  उतावले और परेशान लोग व्यवस्था विरोध की चीख सुनते सड़क पर आ गए।  मंच पर कौन है यह प्रश्न गौण हो गया।  आगे कौन नारा लगा रहा है यह भी महत्व  का नहीं  था।  जिस अनुपात में व्यवस्था के खिलाफ नारे लगते थे लोगो का प्रत्युत्तर उसी  अनुपात में होता   था।  दिल्ली की  सड़को पर क्रांति का माहौल था।  और काली पूंजी के मालिक घबराये हुए तो थे परन्तु इस जुगाड़ में लगे थे कि लोगो का गुस्सा सड़क से संसद तक नहीं पहुँच सके।  वे इसे अंकुरित होने से पहले ही समाप्त कर देना चाहते थे।  आखिर लाखो करोड़ कि भ्रष्ट्र पूँजी दाव पर थी।  वे तत्काल जीत गए।  भ्रष्ट्र पूँजी राहत कि साँस ले रही है।  आंदोलन चरमरा गया।  एक कानून बनाने पर उलझ गया और फिर चुनावी राजनीति का मोहरा बन गया। चुनाव लड़ने का हक़ सबको है।  पर लोग आपमें जो तस्वीर देखते है उसी तस्वीर को बनाये रखने का नैतिक फर्ज भी हमारा होता है. अरविन्द में गलत या सही जे पी नजर आने लगे थे।  लेकिन किसे पता था कि वे एक भ्रष्ट्र पार्टी के मदद से सरकार चलाने  के लिए अपने को दाव पर लगा देंगे।  आज वे भी देश के नैताओ में एक हो गए हैं।  वे भी लाचार राजनीतिज्ञ बनाते जा रहे हैं। अगर प्रशासनिक चुस्ती और सुधार वे ले भी आये तो कोई  बड़ा काम नहीं मना जायेगा।  वास्तव में भ्रष्ट्र व्यवस्था और वर्त्तमान पूंजीवादी नीति आम लोगो के खिलाफ है।  लोग एक बड़े परिवर्तन की उम्मीद लगाये बैठे थे और हैं।  सत्ता की जल्दीबाजी ने चूल्हे के आग में पानी डालने का काम किया  है।  
परिवर्तन सिर्फ आक्रोश या जोश से नहीं होता है।  इसके लिए विमर्श, चिंतन और संवाद चलती रहनी चाहिए।  दुनिया की वही क्रान्तिया सफल हुई जिसके पीछे संगठित शक्तियो का साथ और चितन की  प्रकिया थी।  वे सभी विफल हुए या व्यवस्था के safety valve बनकर रह गए जो अफरा तफरी में लोगो कि व्यथा और असन्तोष को सड़को पर सिर्फ नारबाजी के लिए उपयोग किया।  
केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बनायीं और उनका प्रयोग कैसा  होगा यह तो भविष्य ही बतायेगा।  लेकिन वे मुद्दे आज भी मूह बाये खड़ी हैं जो अन्ना  के आंदोलन के वक्त था।  देश को सामाजिक आर्थिक परिवर्तन से गुजरने का एक मौका था जो हाथ से तत्काल निकल गया।  
देश में कई लोगो ने विचार मंथन का दौर आंदोलन के खातिर शुरू किया था. इसमें भरात नीति प्रतिष्ठान भी था।  
 भारत नीति  प्रतिष्ठान ने 29 मार्च, 2011 के दिल्ली के ”Constitution Club” में भ्रष्ट्राचार के खिलाफ बड़ा सम्मेलन किया जिसमे बड़ी तादाद में बुद्धिजीवी  और विद्यार्थी परिषद् , छात्र संघ के प्रतिनिधि आये थे। अरविन्द केजरीवाल को हम सब की पृष्ठभूमि मालूम थी।  वे पूरे  समय तक रहे.और अच्छा  भाषण किया।  परिषद् और संघ समर्थक बुद्धिजीवियो का समर्थन भी माँगा।  परन्तु वे तब भी जल्दी में दिखे। और यही जल्दीबाजी उनकी कमजोरी और सपनो के बीच में ही टूट जाने का कारण बन गया। तब उन्हे आरएसएस से परहेज नहीं था। वे घुल मिल रहे थे।  लेकिन उन्हें उनकी शर्तो पर उनकी महत्वकांक्ष के अनुकूल लोगो की जरूरत थी। तब मैंने उनको अपने भाषण में जे पी आंदोलन की  कई बातो की ओर ध्यान  दिलाया था। जे पी ने कैसे आंदोलनकारियों को प्रशिक्षित किया था और सब प्रकार के सत्तावादी विडम्बनाओं से आंदोलन को दूर रखा था।  पर वे सब काम नहीं आये।
आज हमारे सामने   चुनौती और भी गहरी है। क्या मात्र प्रशासनिक सुधर और चुस्ती से बुनियादी सवालो का निदान हो जायेगा? क्या अमरीका एवं जर्मनी जैसे देशो का भारत  की अंदरूनी राजनीति में बढती रुचि कई उथल पुथल का कारण बन रहा है? अमेरिका सबसे अधिक दूसरे  देशो की राष्ट्रवादी ताकतो से डरता है। उसकी इस डर का कारण है .ये ताकतें उसे देश को चरागाह नहीं बनाने देती है। अतः आज अमेरिकी रणनीतिकार भारत के नक्सल या वामपंथी बुद्धिजीवियो या आंदोलनो से कम और संघ से अधिक परेशान हैं। इन दावपेंचो को समझकर हम कुछ सोंचे। समय आरोप प्रत्यारोप का नहीं है।  देश को संक  से उबरने, राजनीति को परिष्कृत करने और संस्कृति और समानता कि लड़ाई को आगे बढ़ाने का है।  


7 comments:

  1. अति सुन्दर
    आप की इस पुरानी खिड़की में अब हम अक्सर जांकते रहेंगे

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  2. बहुत उत्तम व्याख्या करी है आपने जन आन्दोलन एवं उनके प्रभावों पर। आशा है आपके ऐसे और भी लेख आते रहेंगे।

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  3. I also supported him as Masiha, wrote poem for supporting AAP. Still not rejecting his position and need in politics. But i do not appreciate the tactical approach in indian politics. Our forefathers were simple and noble, but never tactical in approach. We too want to remain like our ancestor. I can not ensure my support for those, who do not have respect for our cultural, historical and emotional heritage. But i will not hesitate to remind you the philosophical deterioration of our very own institutions. The institutions with massive resources could not deliver and played in the hand of market forces.-- Follower of your opinion Abhishek https://www.facebook.com/abhishek4dionly

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  4. श्रीमान जी अवसरवादिता इंसान की सकारात्मक सोच को समाप्त कर देती है...वह तात्कालिक लाभ के लिए दूरगामी परिणामों की अवहेलना करने लगता है और अन्ततोगत्वा अपनी अपेक्षित परिणिति को प्राप्त करता है.......

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