Saturday, January 18, 2014

भाजपा के भीतर और बाहर की चुनौतिया


"भाजपा के भीतर और बाहर की चुनौतिया"
"उठो पार्थ और गांडीव संभालो"


मैंने एक ट्वीट किया कि भाजपा को अपने कार्यसमिति के सदस्यो एवं प्रांतो के सभी पदाधिकारियो को निर्देश देना चाहिए कि वे अपनी  संपत्ति की घोषणा करे।  एक मित्र ने जवाब दिया कि Media इसे AAP Effect कहकर आलोचना करेगी।  मैंने पूछा कि दीनदयाल जी का जन्म पहले हुआ था कि AAP का ?हम अपनी  विरासत से सीखे उसके अनुसार  चले।  लम्बी राजनीतिक यात्रा में अनेक बुराइया  आ जाती हैं।  इसका मतलब नहीं कि आंदोलन या दल के  बुनियाद और भविष्य पर प्रश्न लग गया है।  चीन की  कम्युनिस्ट पार्टी या पूर्व सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी में पूंजीवादी बुराइया आती रही और वे इसे स्वीकार कर दूर करते रहे।  भारतीय जानसंघ ने अपनी 22  वर्षो कि यात्रा में अनेक बार वैचारिक और मूल्यो के स्तर  पर सुधार किया था।  इस सुधा की  प्रक्रिया में तात्कालिक  क्षति भी हुई थी।  अनेक प्रभावशाली कार्यकर्त्ता नाराज और निराश हुए थे।  ऐसा लगा कि संगठन को अपूर्णीय   क्षति हो रही है परन्तु न ऐसा हुआ न होगा।  संघ के सरसंघचालक श्री मोहनभागवत  जी ने एक बार अपने भाषण  में इस बात को रेखांकित किया था "संघ में कोई भी क्षति अपूरणीय नहीं होती है , अशान्तनवीय  जरूर होता है। "

 सहजता, सरलता , सादगी हमारी पूँजी रही है।   एक घटना सुनिये।  दीनदयाल जी और अटल जी दोनों संघ के मुख पत्र  'पांचजन्य' में काम करते थे।  अटल जी की हवाई चप्पल टूट गयी।  दीनदयाल जी से पैसे माँगा चप्पल खरीदने के लिए।  दीनदयाल जी ने उन्हें दो आना दिया टूटी चप्पल को ठीक करने के लिए।  आधुनिकता के नाम पर हम विरासत को नहीं दफना सकते हैं।  समय के अनुसार अनेक बदलाव आना चाहिए परन्तु समय सादगी को भी बदल दे यह कैसा बदलाव है ? उलटे दक्षिणपंथ के दबाव और उसकी बुराइयों से बचने से दल के प्रति आकर्षण कम नहीं बल्कि अधिक होगा ।  हाल के वर्षो में दस राजेंद्र प्रसाद रोड(एक ही फ्लैट ) ,नई  दिल्ली, में संघ के प्रचारक श्री जे पी माथुर, सुन्दर सिंह भंडारी , कैलाशपति मिश्र किस सादगी के साथ   रहते थे यह अभी  विस्मृत नहीं हुआ  है।   नेतृत्व की यह सादगी  हमारी विशेषता  रही है।  आज लाखो कार्यकर्त्ता नेतृत्व से अपने लिए कुछ भी अपेक्षा नहीं करते हैं।  वे तो संघ आंदोलन और विचारो से  प्रेरित होकर भाजपा को सत्ता में लाना चाहते हैं इसलिए मन मारकर वे  कभी कभी कुछ बुराइयों पर भी आँखे बंद कर लेते है।  भाजापा उसी जनसंघ संस्कृति की पहचान और यात्रा का अंग है।  दीनदयाल जी और जनसंघ ने सबसे पहले   VIP culture पर सवाल उठाया था।  जबलपुर ट्रक कि फैक्ट्री का उद्घाटन करने पंडित जवाहरलाल नेहरू गए थे।  दीनदयालजी ने अपनी Political Diary   में लिखा कि जितना खर्च बड़े ऑफिसर्स और प्रधानमंत्री के जाने आने और व्यवस्था में हुई वह तो ट्रक की कीमत से भी अधिक थी। आखिर पैसा तो जनता  का ही लूट रहा है। उन्होंने लिखा कि " केवल प्रधानमंत्री ही नहीं बल्कि अन्य बहुत से महत्वपूर्ण व्यक्तियो (VIPs ) ने  भी इस समारोह में उपस्थित रहने के लिए  समय निकाल लिया।  …जहां सर्कार के इतने बड़े -बड़े अधिकारी  एक साथ उपस्थित हो , तो यह कितनी अशालीनता  होती  यदि अधिकारियो का समूह उनकी 'खिदमत में हाजिर' नहीं रहे!  यह अनुसन्धान करना काफी रोचक होगा कि  इस समारोह में एकत्र ' अति महत्व्पूर्ण व्यक्तियो' और 'अनति महत्व्पूर्ण व्यक्तियो'  द्वारा कितनी राशी  यात्रा -भत्ते के रूप में वसूल की गयी "  क्या यह प्रसंग आँख खोलने वाला नहीं है? 
किसी पार्टी को इस बात का ख्याल तो रखना ही पड़ेगा कि उसके कार्यकर्त्ताओ में कैसी प्रवृत्ति विकसित हो रही है ? कार्यकर्ता संघ से उपजे स्वयंसेवको के बीच ही अपना  पुरुषार्थ दिखा रहे हैं या समाज के बड़े वर्ग के साथ रचनात्मक संवाद कर रहे हैं ? नव धनाढ्य  वर्ग पार्टी को सहायता करने के नाम पर इसकी विरासत को कही कुतरने का काम तो नहीं कर रहा  है ? धनपशुओं की  परिक्रमा कहीं नए कार्यकर्त्ताओ को बिगार तो नहीं रहा है ? वे लिखते हैं , " भिन्न भिन्न राजनीतिक  दलो को अपने लिए एक दर्शन (सिद्धांत या आदर्श) का क्रमिक विकास करने का प्रयत्न  करना चाहिए।  उन्हें कुछ स्वार्थो की पूर्ती के लिए एकत्र आने वाले लोगो का समुच्चय  मात्र नहीं बनना चाहिए।  उसका रूप किसी व्यपारिक प्रतिष्ठान  या Joint Stock  Company से अलग प्रकार का होना चाहिए।"
दक्षिणपंथी हम न कल थे न रहंगे। जब जनसंघ छोटी पार्टी थी और जब तब एक- एक वोट और एक  एक विधान सभा सीट के लाले पड़े थे, तब भी पार्टी ने जिस  संघ- संस्कृति के अनुसार अपने को ढालने का काम किया और रास्ते के हर रोड़े को हटाया।  दलमें  एक  तबका था जो स्वतंत्र पार्टी से जनसंघ का विलय चाहता था।  इसमें श्री बलराज मधोक जैसे वरिष्ठतम लोग भी थे।  दीनदयाल जी ने स्वतंत्र पार्टी की नीतियो पर सवाल  खड़ा किया और पूछा 'जिन कारणो से स्वत्तंत्र पार्टी का जन्म  हुआ था क्या वे कारण  समाप्त हो गए हैं , यदि हो गए हैं तो विलय हो सकता है अगर नहीं हुए हैं तो विलय का कोई प्रश्न नहीं उठता है।" स्वतंत्र पार्टी का चिंतन शुद्ध पूंजीवादी था।  यह जनसंघ को स्वीकार नहीं था।  दीनदयाल जी ने वामपंथ और दक्षिणपंथ दोनों ही categories को भारत के अनुकूल नहीं माना था।  वे जनसंघ को परवर्तनेच्छु(Pro Change ) श्रेणी में  रखते थे।  तभी तो जनसंघ ने राजस्थान  में  आठ में से पांच MLAs को पार्टी से इसलिए निकाल दिया कि  वे जागीरदारी को समप्त करने  का विरोध कर रहे थे।  जनसंघ ने जागीरदारी और जमींदारी के विरोध में जो नीति अपनाई  थी वह प्रगतिशील था और नेहरू भी उसके समक्ष फीके पड़ गए थे।  यह उस काल की बात है जब जनसंघ एक एक पाई के लिए मुहताज होता था। जो लोग जनसंघ को दक्षिणपंथी कहकर आलोचन करते रहे वे या तो इतिहास से अपरिचित हैं या तथ्यो के साथ खेलना उनका धर्मं ही है।  भारतीय राजनीती में ऐसी जोखिम उठाने के बाद ही जनसंघ दिनों दिन जनप्रिय बनता गया।  दीनदयाल जी कोंग्रेस के कुलीन  राजनीती और वामपंथियो के दोहरे चरित्र के लिए सबसे बड़े Disconfort  बनकर उभरे थे। उनका असमायिक निधन लम्बे समय के लिए शून्यता पैदा कर गया।  
नव उदारवादी आर्थिक नीति  ने नव धनाढ्य वर्ग पैदा किया है।  उनकी अपनी अहमियत  अपनी जगह है परन्तु जिस देश में 55 प्रतिशत लोग Multidimensional poverty Index के अंदर आते हो , जिस देश में School drop outs  अफ़्रीकी देशो से भी अधिक या उसके बराबर हो ,महिलाए  सड़को पर प्रसूति कर रही हों , अस्पताल में इलाज के लिए लोग चिकित्सको की जगह नेताओ के  यहाँ चक्कर लगा रहे हों , फल खाना luxury बन गया हो उस देश के राजनितिक दलो को अपना आर्थिक एजेंडा तो वैचारिक धरातल पर pro poor  रखना ही होगा।  संसद में पहुंचनेवाले लोगो की आर्थिक हालत और सार्वजनिक छवि देखनी ही पड़ेगी।  चार्टर्ड अकाउंटेंट के सर्टिफिकेट ईमानदारी के प्रमाणपत्र नहीं होते हैं।  
महँगी गाड़ी, महँगी कलम ,डिज़ाइनर कपडे राजनीती में प्रविष्ट दक्षिणपंथी प्रभाव का सूचक है।  भाजापा की पूँजी संघ संस्कृति है।  सामूहिक  नेतृत्व और सरल जीवन इसके दो अवयव हैं।  जे पी संघ के निकट क्यों आये ? समाजवादी राम मनोहर लोहिया जनसंघ  के करीब क्यों हुए ? हमारी ईमानदारी , जनता के लिए प्रतिबद्धता  , सरल जीवन राजनीतिक  विरोधियो को भी हमसे जोड़ता एवं  प्रभावितकरता  रहा है। राजनीतिक  संस्कृति को सुधारने  के लिए कभी कभी कसाई (butcher) की  तरह भूमिका अदा करनी पड़ती है। ढलती राजनीतिक  संस्कृति ने ही भारत के वामपंथी पार्टिया जो 9 % वोट लेती रही थी को अब अप्रासंगिक बना दिया है।  समाजवादी पार्टिया तो टिपण्णी के योग्य भी नहीं रही हैं।   
आज भाजापा देश में आशा का केंद्र है।  इसका जनाधार सबसे बड़ा है।  इसके पास मंजे हुए नेता और  प्रतिबद्ध कार्यकर्ता है।  सिर्फ चोरदरवाजे और मायावी धनपशुओं और Anglicized तबके के छ्द्म समर्पण से उसे बचाना है।  वे आज पार्टी को दक्षिणपंथी रुझान और कॉर्पोरेट परस्ती के रास्ते पर ले जाना चाहते हैं।  इसे रोकना चाहिए।   मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी लोहिया जी के प्रति कृतज्ञता है या उनपर मर्त्यपरांत हमला ?
आज देश की जो हालत है उसमे भाजापा का सत्ता में आना हर हालत में जरूरी है।  देश की अस्मिता पर ही सवाल उठने लगा है।  सबसे बड़ी बात है कि भाजपा को रोकने के लिए CIA  एवं अमेरिकी और जमर्नी  की  संस्थाए जिसमे  सोशलिस्ट इंटरनेशनल ,फोर्ड  फाउंडेशन आदि शामिल है परोक्ष हस्तक्षेप कर रही हैं। दस सालो में सम्प्रभूता और सम्मान , (आर्थिक)समानता की बली चढ़ा  दी गयी है।  करो यामरो  के spirit से चुनावी लड़ाई तो लड़नी चाहिए  परन्तु इस क्रम में सेंधमारों से बचने के लिये चौकीदारी भी करते रहना चाहिए।  राजनीती एक मिशन है और सामाजिक सरोकार इसकी better half है। सामान्य व्यक्ति कितना मूर्छित है और प्रमारगत राजनीती और उसके Actors से कितना उब चूका है यह देखने के लिए पश्चिम के किसी विद्वान की पुस्तक पढ़ने या किसी विशेषज्ञ से ज्ञान लेने की आवश्यकता  नहीं है।  सिर्फ अगल बगल झाकने की जरूरत है।  यह कार्य सिर्फ भाजपा ही कर सकती है  चाहे जितनी प्रसव पीड़ा  हो।  


AAP and Lost Opportunity of a Semi-revolution.

AAP and Lost Opportunity of a Semi-revolution

The formation of a new political party or pressure group in a democracy is not uncommon. What is unique about AAP though, is not its success in the recent Assembly elections but the background of its formation. The party was formed by frontline activists of the anti-corruption movement unleashed under the leadership of Gandhian Anna Hazare. That movement received overwhelming support of the people, reflecting their strong anti-system sentiments. It was not merely scams or corruption, black money or the Lokpal bill, but against the very nature of politics. The degeneration of democratic politics in India began when a new class of politicians emerged, representative of all kinds of ills. The “winnability” factor encouraged corrupt and criminal elements to carve their niche in politics. The dynastic politics of the Congress infected all other parties; regional parties, in fact, are nothing more than “family private limited” concerns. Little wonder that people thronged the streets against feudalisation of politics.
This overwhelming support was neither for Anna nor Kejriwal, who were just its instruments. They failed to realise the grammar of mass movement—one reason is their NGO background. The movement became personalised, resulting in its sustainability turning doubtful. The biggest all-India movement after Independence was led by Jayaprakash Narayan, a seasoned political activist who had unwavering faith in mass action. Sadly, the lessons of his 1974 movement were ignored. Mass movement for transformation is a semi-revolution, needing a seasoned team of activists and democratic process of decision-making. It has to pass through continuous dialogues and contemplation. The JP movement brought both the ABVP and Samajvadi Yuvjan Sabha together. He also attempted to convince the Leftist organisations, the SFI and AISF, but both as usual, boycotted the movement dubbing JP and RSS as “American stooges”. However, the undiminished zeal of the frontline leadership kept the flame burning. The Chhatra Sangharsha Samiti and Jan Sangharsha Samiti were formed at various levels from block to state. Adequate research has not been done on the JP movement, which made a significant impact on society and politics.
It is at this point Kejriwal erred seriously. He ignored the formation of committees at the ground level, while the apex committee was formed with those activists who came ‘first’. This committee witnessed jostling for positions and backroom machinations for dominance. Anna suffered a breach of faith as Kejriwal used the forum for political purposes—too soon and too shrewd. Thus, AAP was born as a premature caesarean child. The fascination for AAP was not farfetched, but the zeal for change dissipated with formation of yet another party. Arguably, Kejriwal might make the administration more people-friendly and approachable, a laudable objective. But will a different administration resolve the real problems of people? Their support for a mass movement was not for trivial administrative reforms. It was post-neo-liberal frustration against politics influenced by corporate wealth and disparities due to a non-ideological developmental agenda. This movement has no charter or philosophy, except contempt for politics. The question is whether it was a design to use a movement as a safety valve to dilute people’s anger, or an outcome of inexperienced but ambitious leadership? On March 29, 2011, Kejriwal attended a convention against corruption organised by the Delhi-based think-tank India Policy Foundation, a deliberation that lasted hours, and attended by ABVP and pro-RSS intelligentsia. He solicited their support. People narrated their experiences of mass movement and also the progress and success of the JP movement. Alas, it was all in vain. Kejriwal was in hurry; the nation has lost a big opportunity of a semi-revolution.

Wednesday, January 15, 2014

जनआन्दोलन का ब्याकरण



जनआन्दोलन का ब्याकरण 



जन आंदोलनो से राजनीति  जन्म लेती है परन्तु इसके नायक को हमेशा पद प्राप्ति को कभी उद्देश्य नहीं बनाना चाहिए।  इतिहास में वे लोग ही समाज और राजनीति  को जड़ता से बाहर निकलने में सफल हुए हैं जो स्वयं  सत्ता के भागीदार नहीं बने।  चाहे गांधी हो या जे पी या विनोबा।  जन आंदोलनो का अपना व्याकरण  होता है।  जे पी ने जब  बिहार छात्र आंदोलन  की  अगुआई की थी तब उन्होंने परिवर्तन के लिए इच्छुक और प्रतिबद्ध सभी ताकतो को एक जुट किया। विद्यार्थी परिषद् और समाजवादी युवजन सभा दोनों व्यवस्था विरोधी आंदोलनो में शरीक हुए।  बाद में जनसंघ और सोशलिस्ट पार्टी और कोंग्रेस से विद्रोह किये लोग उसमे शामिल हुए।  प्रभाव कितना  है इसका उदहारण इस आंदोलन के दौरान मिलता है।  जनसंघ ने विधान सभा से इस्तीफ़ा देने की बात की।  जब 11 विधायको ने ऐसा करने  पर आपत्ति  की तो उन्हें पार्टी से निकाल  दिया गया।  इस आंदोलन में देश में जे पी व्यवहारिक क्रांतिकारी  थे।  उन्होंने एक बार दलविहीन राजनीति की बात की थी और अनुभव किया कि संसदीय जनतंत्र दलीय व्यवस्था के बिना अराजक हो जायेगा। जे पी आंदोलन ने देश को कई सामंतवादी , पुरातनपंथी सोच से बाहर  निकालने का काम किया। जे पी आंदोलन पर जितना शोध किया जाना चाहिये  था नहीं हुआ।  जे पी ने भागलपुर में भाषण देते हुए जनेऊ तोड़ने की बात कही थी।  इसके पीछे वे कथित निम्न जातियो को कथित द्विज के बराबर का भाव जगाना चाहते थे।  मेरी आयु छोटी थी।  छोटी उम्र में उपनयन हो गया था।  और मैंने वह आवाज सुनकर जनेऊ उतार दिया। परवर्तन और अच्छाई की बात छोटी उम्र के लोगो को समझ में आती है इसलिए आज जब अन्ना  या केजरीवाल की लोकप्रियता कम उम्र के बच्चो में दिखाई पड़ता है तो मुझे आश्चर्य नहीं होता है। अमेरिका के सिविल वार में भी कम उम्र के बच्चे शरीक हुए थे।  1942 के आंदोलन में कम उम्र के लोगो ने बड़ी संख्या में भागीदारी दिखायी थी।  
अरविन्द केजरीवाल ने अन्ना हजारे  के साथ जब  आंदोलन  करने के लिए कदम बढ़ाया तो उम्मीद यही बंधी थी कि एक बार फिर  जन आंदोलन व्यवस्था परिवर्तन के खिलाफ  होगा जो समाज और राजनीति दोनों का परिष्कार करेगी। अरविन्द और उनकी टीम ईमानदारी से मेहनत  कर रही थी।  सबसे बड़ी बात है कि लोग परम्परागत राजनीति  में पैसे के प्रभाव और मूल्यो में गिरवाट से चिंतित ही नहीं क्रोधित और उतावले हैं।  दस साल का वक्त छोटा नहीं होता है।  इन सालो में आर्हतिक नीतियो ने अमीरी बढ़ाई  है और आम लोगो को अस्तित्व से लड़ने के लिए छोड़  दिया है। राजनीतिक  व्यवस्था में जो सामाजिक आधार और सोच वाले लोग हैं वे इस समस्या से जोड़ नहीं पा रहे हैं।  एक दूसरा वर्ग भी विकसित हुआ।  यह वर्ग ब्रिटेन के बीसवी सदी के फेबियन समाजवादी की तरह है। सुविधा सम्पन्न वर्ग है परन्तु उसमे सामाजिक सरोकार भी है। अपनीं पूंजीवादी सुख सुविधा बनाये रखते हुए यह वर्ग परिवर्तन के लिए इच्छुक है। इसीलिए अन्ना  के आंदोलन में हासिये के लोग और फेबियन दोनों थे।  वे भी थे जो महीने के पांच हजार और  वे भी थे जो महीने में पांच लाख  कमा  रहे हैं।   
अन्ना -अरविन्द का आंदोलन सडको पर शुरू हुआ।  विचार मंथनो के दौर से नहीं गुजर पाया।  उतावले और परेशान लोग व्यवस्था विरोध की चीख सुनते सड़क पर आ गए।  मंच पर कौन है यह प्रश्न गौण हो गया।  आगे कौन नारा लगा रहा है यह भी महत्व  का नहीं  था।  जिस अनुपात में व्यवस्था के खिलाफ नारे लगते थे लोगो का प्रत्युत्तर उसी  अनुपात में होता   था।  दिल्ली की  सड़को पर क्रांति का माहौल था।  और काली पूंजी के मालिक घबराये हुए तो थे परन्तु इस जुगाड़ में लगे थे कि लोगो का गुस्सा सड़क से संसद तक नहीं पहुँच सके।  वे इसे अंकुरित होने से पहले ही समाप्त कर देना चाहते थे।  आखिर लाखो करोड़ कि भ्रष्ट्र पूँजी दाव पर थी।  वे तत्काल जीत गए।  भ्रष्ट्र पूँजी राहत कि साँस ले रही है।  आंदोलन चरमरा गया।  एक कानून बनाने पर उलझ गया और फिर चुनावी राजनीति का मोहरा बन गया। चुनाव लड़ने का हक़ सबको है।  पर लोग आपमें जो तस्वीर देखते है उसी तस्वीर को बनाये रखने का नैतिक फर्ज भी हमारा होता है. अरविन्द में गलत या सही जे पी नजर आने लगे थे।  लेकिन किसे पता था कि वे एक भ्रष्ट्र पार्टी के मदद से सरकार चलाने  के लिए अपने को दाव पर लगा देंगे।  आज वे भी देश के नैताओ में एक हो गए हैं।  वे भी लाचार राजनीतिज्ञ बनाते जा रहे हैं। अगर प्रशासनिक चुस्ती और सुधार वे ले भी आये तो कोई  बड़ा काम नहीं मना जायेगा।  वास्तव में भ्रष्ट्र व्यवस्था और वर्त्तमान पूंजीवादी नीति आम लोगो के खिलाफ है।  लोग एक बड़े परिवर्तन की उम्मीद लगाये बैठे थे और हैं।  सत्ता की जल्दीबाजी ने चूल्हे के आग में पानी डालने का काम किया  है।  
परिवर्तन सिर्फ आक्रोश या जोश से नहीं होता है।  इसके लिए विमर्श, चिंतन और संवाद चलती रहनी चाहिए।  दुनिया की वही क्रान्तिया सफल हुई जिसके पीछे संगठित शक्तियो का साथ और चितन की  प्रकिया थी।  वे सभी विफल हुए या व्यवस्था के safety valve बनकर रह गए जो अफरा तफरी में लोगो कि व्यथा और असन्तोष को सड़को पर सिर्फ नारबाजी के लिए उपयोग किया।  
केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बनायीं और उनका प्रयोग कैसा  होगा यह तो भविष्य ही बतायेगा।  लेकिन वे मुद्दे आज भी मूह बाये खड़ी हैं जो अन्ना  के आंदोलन के वक्त था।  देश को सामाजिक आर्थिक परिवर्तन से गुजरने का एक मौका था जो हाथ से तत्काल निकल गया।  
देश में कई लोगो ने विचार मंथन का दौर आंदोलन के खातिर शुरू किया था. इसमें भरात नीति प्रतिष्ठान भी था।  
 भारत नीति  प्रतिष्ठान ने 29 मार्च, 2011 के दिल्ली के ”Constitution Club” में भ्रष्ट्राचार के खिलाफ बड़ा सम्मेलन किया जिसमे बड़ी तादाद में बुद्धिजीवी  और विद्यार्थी परिषद् , छात्र संघ के प्रतिनिधि आये थे। अरविन्द केजरीवाल को हम सब की पृष्ठभूमि मालूम थी।  वे पूरे  समय तक रहे.और अच्छा  भाषण किया।  परिषद् और संघ समर्थक बुद्धिजीवियो का समर्थन भी माँगा।  परन्तु वे तब भी जल्दी में दिखे। और यही जल्दीबाजी उनकी कमजोरी और सपनो के बीच में ही टूट जाने का कारण बन गया। तब उन्हे आरएसएस से परहेज नहीं था। वे घुल मिल रहे थे।  लेकिन उन्हें उनकी शर्तो पर उनकी महत्वकांक्ष के अनुकूल लोगो की जरूरत थी। तब मैंने उनको अपने भाषण में जे पी आंदोलन की  कई बातो की ओर ध्यान  दिलाया था। जे पी ने कैसे आंदोलनकारियों को प्रशिक्षित किया था और सब प्रकार के सत्तावादी विडम्बनाओं से आंदोलन को दूर रखा था।  पर वे सब काम नहीं आये।
आज हमारे सामने   चुनौती और भी गहरी है। क्या मात्र प्रशासनिक सुधर और चुस्ती से बुनियादी सवालो का निदान हो जायेगा? क्या अमरीका एवं जर्मनी जैसे देशो का भारत  की अंदरूनी राजनीति में बढती रुचि कई उथल पुथल का कारण बन रहा है? अमेरिका सबसे अधिक दूसरे  देशो की राष्ट्रवादी ताकतो से डरता है। उसकी इस डर का कारण है .ये ताकतें उसे देश को चरागाह नहीं बनाने देती है। अतः आज अमेरिकी रणनीतिकार भारत के नक्सल या वामपंथी बुद्धिजीवियो या आंदोलनो से कम और संघ से अधिक परेशान हैं। इन दावपेंचो को समझकर हम कुछ सोंचे। समय आरोप प्रत्यारोप का नहीं है।  देश को संक  से उबरने, राजनीति को परिष्कृत करने और संस्कृति और समानता कि लड़ाई को आगे बढ़ाने का है।