"भाजपा के भीतर और बाहर की चुनौतिया"
"उठो पार्थ और गांडीव संभालो"
मैंने एक ट्वीट किया कि भाजपा को अपने कार्यसमिति के सदस्यो एवं प्रांतो के सभी पदाधिकारियो को निर्देश देना चाहिए कि वे अपनी संपत्ति की घोषणा करे। एक मित्र ने जवाब दिया कि Media इसे AAP Effect कहकर आलोचना करेगी। मैंने पूछा कि दीनदयाल जी का जन्म पहले हुआ था कि AAP का ?हम अपनी विरासत से सीखे उसके अनुसार चले। लम्बी राजनीतिक यात्रा में अनेक बुराइया आ जाती हैं। इसका मतलब नहीं कि आंदोलन या दल के बुनियाद और भविष्य पर प्रश्न लग गया है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी या पूर्व सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी में पूंजीवादी बुराइया आती रही और वे इसे स्वीकार कर दूर करते रहे। भारतीय जानसंघ ने अपनी 22 वर्षो कि यात्रा में अनेक बार वैचारिक और मूल्यो के स्तर पर सुधार किया था। इस सुधार की प्रक्रिया में तात्कालिक क्षति भी हुई थी। अनेक प्रभावशाली कार्यकर्त्ता नाराज और निराश हुए थे। ऐसा लगा कि संगठन को अपूर्णीय क्षति हो रही है परन्तु न ऐसा हुआ न होगा। संघ के सरसंघचालक श्री मोहनभागवत जी ने एक बार अपने भाषण में इस बात को रेखांकित किया था "संघ में कोई भी क्षति अपूरणीय नहीं होती है , अशान्तनवीय जरूर होता है। "
सहजता, सरलता , सादगी हमारी पूँजी रही है। एक घटना सुनिये। दीनदयाल जी और अटल जी दोनों संघ के मुख पत्र 'पांचजन्य' में काम करते थे। अटल जी की हवाई चप्पल टूट गयी। दीनदयाल जी से पैसे माँगा चप्पल खरीदने के लिए। दीनदयाल जी ने उन्हें दो आना दिया टूटी चप्पल को ठीक करने के लिए। आधुनिकता के नाम पर हम विरासत को नहीं दफना सकते हैं। समय के अनुसार अनेक बदलाव आना चाहिए परन्तु समय सादगी को भी बदल दे यह कैसा बदलाव है ? उलटे दक्षिणपंथ के दबाव और उसकी बुराइयों से बचने से दल के प्रति आकर्षण कम नहीं बल्कि अधिक होगा । हाल के वर्षो में दस राजेंद्र प्रसाद रोड(एक ही फ्लैट ) ,नई दिल्ली, में संघ के प्रचारक श्री जे पी माथुर, सुन्दर सिंह भंडारी , कैलाशपति मिश्र किस सादगी के साथ रहते थे यह अभी विस्मृत नहीं हुआ है। नेतृत्व की यह सादगी हमारी विशेषता रही है। आज लाखो कार्यकर्त्ता नेतृत्व से अपने लिए कुछ भी अपेक्षा नहीं करते हैं। वे तो संघ आंदोलन और विचारो से प्रेरित होकर भाजपा को सत्ता में लाना चाहते हैं इसलिए मन मारकर वे कभी कभी कुछ बुराइयों पर भी आँखे बंद कर लेते है। भाजापा उसी जनसंघ संस्कृति की पहचान और यात्रा का अंग है। दीनदयाल जी और जनसंघ ने सबसे पहले VIP culture पर सवाल उठाया था। जबलपुर ट्रक कि फैक्ट्री का उद्घाटन करने पंडित जवाहरलाल नेहरू गए थे। दीनदयालजी ने अपनी Political Diary में लिखा कि जितना खर्च बड़े ऑफिसर्स और प्रधानमंत्री के जाने आने और व्यवस्था में हुई वह तो ट्रक की कीमत से भी अधिक थी। आखिर पैसा तो जनता का ही लूट रहा है। उन्होंने लिखा कि " केवल प्रधानमंत्री ही नहीं बल्कि अन्य बहुत से महत्वपूर्ण व्यक्तियो (VIPs ) ने भी इस समारोह में उपस्थित रहने के लिए समय निकाल लिया। …जहां सर्कार के इतने बड़े -बड़े अधिकारी एक साथ उपस्थित हो , तो यह कितनी अशालीनता होती यदि अधिकारियो का समूह उनकी 'खिदमत में हाजिर' नहीं रहे! यह अनुसन्धान करना काफी रोचक होगा कि इस समारोह में एकत्र ' अति महत्व्पूर्ण व्यक्तियो' और 'अनति महत्व्पूर्ण व्यक्तियो' द्वारा कितनी राशी यात्रा -भत्ते के रूप में वसूल की गयी " क्या यह प्रसंग आँख खोलने वाला नहीं है?
किसी पार्टी को इस बात का ख्याल तो रखना ही पड़ेगा कि उसके कार्यकर्त्ताओ में कैसी प्रवृत्ति विकसित हो रही है ? कार्यकर्ता संघ से उपजे स्वयंसेवको के बीच ही अपना पुरुषार्थ दिखा रहे हैं या समाज के बड़े वर्ग के साथ रचनात्मक संवाद कर रहे हैं ? नव धनाढ्य वर्ग पार्टी को सहायता करने के नाम पर इसकी विरासत को कही कुतरने का काम तो नहीं कर रहा है ? धनपशुओं की परिक्रमा कहीं नए कार्यकर्त्ताओ को बिगार तो नहीं रहा है ? वे लिखते हैं , " भिन्न भिन्न राजनीतिक दलो को अपने लिए एक दर्शन (सिद्धांत या आदर्श) का क्रमिक विकास करने का प्रयत्न करना चाहिए। उन्हें कुछ स्वार्थो की पूर्ती के लिए एकत्र आने वाले लोगो का समुच्चय मात्र नहीं बनना चाहिए। उसका रूप किसी व्यपारिक प्रतिष्ठान या Joint Stock Company से अलग प्रकार का होना चाहिए।"
दक्षिणपंथी हम न कल थे न रहंगे। जब जनसंघ छोटी पार्टी थी और जब तब एक- एक वोट और एक एक विधान सभा सीट के लाले पड़े थे, तब भी पार्टी ने जिस संघ- संस्कृति के अनुसार अपने को ढालने का काम किया और रास्ते के हर रोड़े को हटाया। दलमें एक तबका था जो स्वतंत्र पार्टी से जनसंघ का विलय चाहता था। इसमें श्री बलराज मधोक जैसे वरिष्ठतम लोग भी थे। दीनदयाल जी ने स्वतंत्र पार्टी की नीतियो पर सवाल खड़ा किया और पूछा 'जिन कारणो से स्वत्तंत्र पार्टी का जन्म हुआ था क्या वे कारण समाप्त हो गए हैं , यदि हो गए हैं तो विलय हो सकता है अगर नहीं हुए हैं तो विलय का कोई प्रश्न नहीं उठता है।" स्वतंत्र पार्टी का चिंतन शुद्ध पूंजीवादी था। यह जनसंघ को स्वीकार नहीं था। दीनदयाल जी ने वामपंथ और दक्षिणपंथ दोनों ही categories को भारत के अनुकूल नहीं माना था। वे जनसंघ को परवर्तनेच्छु(Pro Change ) श्रेणी में रखते थे। तभी तो जनसंघ ने राजस्थान में आठ में से पांच MLAs को पार्टी से इसलिए निकाल दिया कि वे जागीरदारी को समप्त करने का विरोध कर रहे थे। जनसंघ ने जागीरदारी और जमींदारी के विरोध में जो नीति अपनाई थी वह प्रगतिशील था और नेहरू भी उसके समक्ष फीके पड़ गए थे। यह उस काल की बात है जब जनसंघ एक एक पाई के लिए मुहताज होता था। जो लोग जनसंघ को दक्षिणपंथी कहकर आलोचन करते रहे वे या तो इतिहास से अपरिचित हैं या तथ्यो के साथ खेलना उनका धर्मं ही है। भारतीय राजनीती में ऐसी जोखिम उठाने के बाद ही जनसंघ दिनों दिन जनप्रिय बनता गया। दीनदयाल जी कोंग्रेस के कुलीन राजनीती और वामपंथियो के दोहरे चरित्र के लिए सबसे बड़े Disconfort बनकर उभरे थे। उनका असमायिक निधन लम्बे समय के लिए शून्यता पैदा कर गया।
नव उदारवादी आर्थिक नीति ने नव धनाढ्य वर्ग पैदा किया है। उनकी अपनी अहमियत अपनी जगह है परन्तु जिस देश में 55 प्रतिशत लोग Multidimensional poverty Index के अंदर आते हो , जिस देश में School drop outs अफ़्रीकी देशो से भी अधिक या उसके बराबर हो ,महिलाए सड़को पर प्रसूति कर रही हों , अस्पताल में इलाज के लिए लोग चिकित्सको की जगह नेताओ के यहाँ चक्कर लगा रहे हों , फल खाना luxury बन गया हो उस देश के राजनितिक दलो को अपना आर्थिक एजेंडा तो वैचारिक धरातल पर pro poor रखना ही होगा। संसद में पहुंचनेवाले लोगो की आर्थिक हालत और सार्वजनिक छवि देखनी ही पड़ेगी। चार्टर्ड अकाउंटेंट के सर्टिफिकेट ईमानदारी के प्रमाणपत्र नहीं होते हैं।
महँगी गाड़ी, महँगी कलम ,डिज़ाइनर कपडे राजनीती में प्रविष्ट दक्षिणपंथी प्रभाव का सूचक है। भाजापा की पूँजी संघ संस्कृति है। सामूहिक नेतृत्व और सरल जीवन इसके दो अवयव हैं। जे पी संघ के निकट क्यों आये ? समाजवादी राम मनोहर लोहिया जनसंघ के करीब क्यों हुए ? हमारी ईमानदारी , जनता के लिए प्रतिबद्धता , सरल जीवन राजनीतिक विरोधियो को भी हमसे जोड़ता एवं प्रभावितकरता रहा है। राजनीतिक संस्कृति को सुधारने के लिए कभी कभी कसाई (butcher) की तरह भूमिका अदा करनी पड़ती है। ढलती राजनीतिक संस्कृति ने ही भारत के वामपंथी पार्टिया जो 9 % वोट लेती रही थी को अब अप्रासंगिक बना दिया है। समाजवादी पार्टिया तो टिपण्णी के योग्य भी नहीं रही हैं।
आज भाजापा देश में आशा का केंद्र है। इसका जनाधार सबसे बड़ा है। इसके पास मंजे हुए नेता और प्रतिबद्ध कार्यकर्ता है। सिर्फ चोरदरवाजे और मायावी धनपशुओं और Anglicized तबके के छ्द्म समर्पण से उसे बचाना है। वे आज पार्टी को दक्षिणपंथी रुझान और कॉर्पोरेट परस्ती के रास्ते पर ले जाना चाहते हैं। इसे रोकना चाहिए। मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी लोहिया जी के प्रति कृतज्ञता है या उनपर मर्त्यपरांत हमला ?
आज देश की जो हालत है उसमे भाजापा का सत्ता में आना हर हालत में जरूरी है। देश की अस्मिता पर ही सवाल उठने लगा है। सबसे बड़ी बात है कि भाजपा को रोकने के लिए CIA एवं अमेरिकी और जमर्नी की संस्थाए जिसमे सोशलिस्ट इंटरनेशनल ,फोर्ड फाउंडेशन आदि शामिल है परोक्ष हस्तक्षेप कर रही हैं। दस सालो में सम्प्रभूता और सम्मान , (आर्थिक)समानता की बली चढ़ा दी गयी है। करो यामरो के spirit से चुनावी लड़ाई तो लड़नी चाहिए परन्तु इस क्रम में सेंधमारों से बचने के लिये चौकीदारी भी करते रहना चाहिए। राजनीती एक मिशन है और सामाजिक सरोकार इसकी better half है। सामान्य व्यक्ति कितना मूर्छित है और प्रमारगत राजनीती और उसके Actors से कितना उब चूका है यह देखने के लिए पश्चिम के किसी विद्वान की पुस्तक पढ़ने या किसी विशेषज्ञ से ज्ञान लेने की आवश्यकता नहीं है। सिर्फ अगल बगल झाकने की जरूरत है। यह कार्य सिर्फ भाजपा ही कर सकती है चाहे जितनी प्रसव पीड़ा हो।