Saturday, May 31, 2014

"वैकल्पिक बौद्धिक एवं नीतिगत अवधारणाओ के प्रतिपादन का अवसर"

"वैकल्पिक बौद्धिक एवं नीतिगत अवधारणाओ के प्रतिपादन का अवसर" 

“अब आगे संघ क्या करेगा?“ यह प्रश्न पूछा जाने लगा। जब केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनते ही यह प्रश्न पूछा जाने लगा कि अब संघ क्या करेगा। यह अस्वभाविक नहीं है। जैसी धारणा होती है वैसा ही जिज्ञासा और सवाल उपजता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत के विमर्श में तथ्यों, वास्तविकता, असलियत से कम छवि, धारणा और अभिप्रायों से कहीं अधिक देखा जाता रहा है। धारणा यही है कि संघ पीछे से राजनीति करता है और छवि यही बनायी गयी है कि यह अल्पसंख्यकों के प्रति असहनशील और संवदेनहीन है। इसलिए उपरोक्त सवाल का पहला पक्ष “रिमोट कन्ट्रोल“ सिद्धांत पर आधारित है। क्या यह सरकार चलायेगा? इस प्रश्न का उत्तर जो भी हो अविवादित नहीं हो सकता है। परन्तु दूसरा प्रश्न कहीं अधिक गम्भीर और अहम है। इसका भविष्य का वैचारिक एजेंडा क्या होगा?

पहला प्रश्न इस बात पर आधारित है कि संघ का मूल पिंड राजनीतिक है। जबकि सच्चाई यह है कि संघ और राजनीति का संबंध परिवर्तनशील है। यह स्थायी भाव नहीं है। यदि स्थायी होता तो संघ स्वतंत्र शक्ति के रूप में खड़ा नही होता। संघ की स्थापना सन् 1925 में हुई तब से दर्जनों छोटे-बड़े संगठनों का उत्थान और पतन हुआ। परन्तु संघ की जमीन दिनों-दिन बढ़ती ही गयी। समाचारों में संघ सिर्फ सत्ता के गलियारों में जाना-पहचाना जा रहा है परन्तु इसका वास्तविक कार्य दलितों, आदिवासियों, मजदूरों, विद्यार्थियों के बीच फैला हुआ है। संघ राजनीति को अपने अनुकूल नहीं समाज सापेक्ष बनाने के मकसद से दखल देता है। लेकिन यह दखल इसके मूल प्रकृति को नहीं बदलता है। राजनीति से संबंधित सन्यांस लिये हुये लोगों एवं संगठनों को राजनीति में दखल देने के लिए बाध्य होना पड़ा। जयप्रकाश और विनोबा भावे इसके उदाहरण हैं। आजादी के पूर्व पंजाब के आर्य समाज और पंजाब कांग्रेस के बीच अंतर समाप्त हो गया था। लाला लाजपत राय इसका उदाहरण हैं।

भाजपा से संघ का संबंध कांग्रेस और सेवादल का जैसा संबंध न था, न है न हो सकता है। सामाजिक-सांस्कृतिक प्रवाह से राजनीति उत्पन्न होती है, और उसका निरंतर परष्किार होता, उसकी दिशा निर्धारित होती है। संघ-भाजपा संबंध इसका जीता-जागता उदाहरण है। जिस संघ को जमींदारों और पूंजीपतियों का संगठन कहकर आलोचना की जाती थी उसी संघ ने जनसंघ को जमींदारी उन्मूलन विधेयक का समर्थन करने की नीतिगत प्रेरणा दी थी। राजस्थान में जनसंघ ने अपने शैशवकाल में ही आठ में से पांच विधायकों को इसलिए दल से निकाल दिया था कि वे जमींदारी व्यवस्था के समर्थक थे। एक ओर घटना उल्लेखनीय है। सन् 1945 के चुनाव में नागपुर में संघ के नजदीकी बाबा साहेब घटाटे ने चुनाव लड़ने का निर्णय लिया। सन् 1945 की राजनीतिक परिस्थिति में कांग्रेस का कमजोर होना देश के हित में नहीं था और संघ ने घटाटे को उम्मीदवारी वापस लेने का निर्देेश दिया। और ऐसा हुआ भी। इस पर संघ के नजदीकी और हिन्दू महासभा के नेता डा. बी.एस. मुंजे ने अपनी डायरी में लिखा था कि “मैं आश्चर्यचकित हूं कि संघ इस प्रकार का वाह्यात काम (थ्।त्ब्म्) करता है।“ वही मूंजे सन् 1934 में चुनाव के दौरान संघ के द्वारा उनका और उनके समर्थन में प्रचार के लिए आए मदन मोहन मालवीय को विरोधियों के पथराव से बचाने के लिए अनुग्रहीत थे। जो आज संघ से प्रसन्न है वह कल भी संघ के प्रति वैसा ही भाव रखेगा यह कोई ज्योतिषी नहीं बता सकता है। संघ परजीविता के भाव से मुक्त संगठन है। इसी में संघ आगे क्या करेगा इस प्रश्न का भी उत्तर नीहित है। यह प्रश्न पहली बार सामने नहीं आया है। हिन्दू महासभा संघ में अनेक वैचारिक समानता थी। महासभा के पास बड़े साइन बोर्ड वाले नाम थे- सावरकर, भाई परमानन्द, डा. मुंजे आदि। उनके समानान्तर संघ के पास एक भी नाम नहीं था। उनका दबाव था संघ महासभा के साथ काम करे। उन्हें निराशा हुई। तब उनके द्वारा संघ की गई आलोचना को इतिहास ने गलत साबित कर दिया।

आजादी से पूर्व 11 फरवरी, 1947 को सेन्ट्रल एसेम्बली में गृहमंत्री ने बताया कि किसी भी प्रांत ने संघ को साम्प्रदायिक होने या दंगा में लिप्त होने का रिपोर्ट नहीं दिया। आजादी के बाद कांग्रेस ने प्रस्ताव पारित कर संघ को “राष्ट्र निर्माण“ के नाम पर पार्टी में आने का न्योता दिया वह निष्प्रभावी रहा। सन् 1977 में जनता पार्टी बनी। जनसंघ सरकार का मजबूत घटक था। तब संघ पर दबाव था कि अपने अस्तित्व पर विचार करे। पर संघ के लिए यह हास्यास्पद प्रस्ताव था। राजनीति ने कभी भी दुविधा उत्पन्न नहीं की है।

वर्तमान राजनीतिक परिवर्तन अहम और गुणात्मक रूप से भिन्न है। एक विचारधारा पर आधारित पार्टी को जनादेश मिला है। इस परिवर्तन के मायनों को समझना पड़ेगा। साठ के दशक के बाद बौद्धिक जगत पर माक्र्सवाद-नेहरूवाद का प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ता गया। राष्ट्रवादी विचारक के.एम. मुन्शी का विद्या भवन इसके प्रतिरोध की अंतिम कड़ी था। पूरा विमर्श वैचारिक रूप से एकतरफा एवं सत्तावादी राजनीति से प्रेरित हुआ। इस विमर्श ने संघ के विचारों को विमर्श का हिस्सा नहीं बनने दिया। उसके स्थान पर महिला विमर्श, दलित विमर्श की तर्ज पर संघ विमर्श शुरू हो गया। अर्थात् संघ कितना अच्छा कितना बुरा? बौद्धिक विमर्श कितना असंतुलित और विकलांगता का शिकार था इसका प्रमाण है संघ के समर्थन में कुछ छपना इसके समर्थक और विरोधियों दोनों के बीच कौतूहल का विषय होता रहा।

पिछले दशकों में देश का आर्थिक विकास, औद्योगिक नीति जैसे विषय उपेक्षित रहे और पूरी बौद्धिकता साम्प्रदायिक-धर्मनिरपेक्षता के सवाल के चारों ओर घूमने लगे। ऐसा लगा कि भारतीय राज्य, समाज और राष्ट्र कल ही बना हो। इसमें धर्म निरपेक्षता स्थापित करने की मशक्कत चल रही है। पिछले दशक में सच्चर कमेटी, धर्म परिवर्तन, अल्पसंख्यक तुष्टीकरण जैसे विषय संस्थागत हो गये। यहां तक कि अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय तक बना दिया गया था। अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक अवधारणा को संघ ही नहीं भारत की संविधान सभा ने भी देश की एकता व अखंडता के लिए जोखिम भरा बताकर नकारा था पर वह स्थायी भाव बनता चला गया। मोदी सरकार के निर्माण ने ऐसी नकारात्मक प्रवृत्तियों एवं भावों को सहज रूप से ध्वस्त किया है। इसके लिए जनता का जनादेश भी है।

एक लोकप्रिय राजनेता का व्यक्तित्व विचार और वाणी अनेक सवालों का उत्तर भी होता है। इस संदर्भ में मोदी का वाराणसी का भाषण उल्लेखनीय है। गंगा-प्रदूषण का सवाल तो अहम था ही उन्होंने जिस सहजता से भारतीय इतिहास के असंतुलित स्वरूप पर प्रकाश डाला उसे रेखांकित करने की आवश्यकता है, उन्होंने भारत की राजनीति और इतिहास के पन्नों में श्री श्याम जी कृष्ण वर्मा जैसे क्रांतिकारियों के योगदानों के प्रति उपेक्षा का प्रसंग उठाया। यह घटना मात्र नहीं है। यह सिर्फ उनके मन की पीड़ा नहीं बल्कि उस शासकीय विचाराधारा पर सकारात्मक प्रहार भी है जो संकीर्णता के आयने में इतिहास और राष्ट्र को देखता रहा। तिलक युग का उन्होंने जिस सम्मान के साथ उल्लेख किया वह विमर्श के गुणात्मक बदलाव का पहला बड़ा संकेत है।

संघ को सन् 1948 से निरंतर नकारात्मक प्रवृत्तियों से लड़ने के लिए अपनी ऊर्जा क्षय करना पड़ता रहा। इसने एक आलसी और आरामतलब सेकुलरवादी बौद्धिकता को जन्म दिया। यह यथार्थ से कटता गया। संघ विमर्श इसकी मूल संपत्ति बन गयी। यही उसके प्रगतिशील समाजवादी और जनवादी होने का आधार बन गया। उन्हें लगता रहा कि संघ परास्त हो रहा है। पर वे गांवों, जंगलों, रेगिस्तानों में बढ़ते भगवा प्रवाह और प्रभाव को देख नहीं पाये।

संघ राष्ट्र निर्माण को समाज-संस्कृति की रचना से जोड़ता है। और इसीलिए सकारात्मक कार्यों में इसकी तत्परता देखी जा सकती है। सन् 1977 में जनता सरकार ने प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम चलाया जिसे संघ के स्वयंसेवकों ने सफल बनाया तो आरोप लगाया गया कि संघ का घुसपैठ हो रहा है। इतिहास बोध इसे गलत साबित करता है। नेहरू सरकार के खाद्य सचिव ने नेहरू को लिखा था कि खाद्य अभियान में संघ से सहयोग की आवश्यकता है। संघ सन् 1948 में लगे प्रतिबंध से जला-भुना था। पर नेहरू के आग्रह पर संघ इसमें कूद पड़ा। क्या तब इसका घुसपैठ नहीं था? देश के सामने जनसंख्या, पर्यावरण, आर्थिक विकास जैसे मुद्दे हैं जिसमें सकारात्मक सामाजिक-सांस्कृति पहल की आवश्यकता है। जमीनी स्तर पर बढ़ती आर्थिक असमानता संघ को उद्वेलित कर रहा है। नयी परिस्थितियों ने संघ को सकारात्मक पहल वैकल्पिक बौद्धिक एवं नीतिगत अवधारणाओं के प्रतिवादन का सुअवसर दिया है। यदि संघ का सत्तावादी मिशन होता तो संघ में ठहराव आ जाता पर इसके सभ्यताई मिशन में सरकार का बनना-बिगड़ना अहम प्रश्न तो है पर अंतिम प्रश्न नहीं है।

Sunday, May 11, 2014

Modi's Emergence Holds Lessons for the Media

Modi's Emergence Holds Lessons for the Media


Narendra Modi’s emergence in national politics holds out one important message for both public figures and India’s media equally. He has been the only political leader to be subject to a systematic, organised and incessant media and academic onslaught for his alleged role in the 2002 (Gujarat) riots.
The decade-long campaign of calumny against Modi outdoes even the mud of the Indian Oceanin its abusive content. Undoubtedly, press freedom and autonomy is a precondition for any liberal democracy. But nothing is absolute in an objective world. Context and reference cannot be dispensed with in any discussion on press freedom. The anti-Modi campaign is part of the ideological predisposition which a predominant section of the media is afflicted with. Like Indian politics, the media too has imbibed the prejudice of anti-RSSism. This is evident on all occasions whenever the RSS has been decisively involved in any political process. The Janata government’s crisis in 1978-79 on the question of relationship with the RSS saw a big section of media becoming a Trojan horse of anti-RSS forces. During the Ramjanmbhoomi movement in the 90s, the media underwent a division, with the English and vernacular press on diametrically opposing sides. Consequently, it morphed into a half-hearted debate on the role of ideology in reporting. It is the ascendency of Hindutva that has become unpalatable for this crowd. The media was once again used to propagate and orchestrate “Hindu terrorism” in the popular mind, though in vain. RSS’ connectivity with the masses demolished this media assault.
The media also endeavours to suppress ideology and project personality. It deigns approval when Modi talks developmental issues; however, the gloves are off when he defines himself as a Hindu nationalist or
reveres Lord Rama.
Modi walked out of an interview in less than five minutes on October 20, 2007 when a senior 
journalist
 tried to impose his perception and views on him about the Godhra riots. He drew ire for his ‘harsh’ behaviour. One would do well to recall Dr Ambedkar’s views in the Constituent Assembly that individual views and freedom of press are not different. The latter is synonymous with freedom of expression. In post-colonial India, clash between Western and Indian ideologies was inevitable.

Sardar Patel was also information and broadcasting minister, yet never used media to mould his image. His agenda was national reconstruction. Neither did he ever make any decision worrying about his media image. On many occasions he was labelled fascist and communal, but remained unperturbed; never counter-attacked the press.
Anti-RSSism in media complements the Nehruvian and Marxist grip on social science. Media discourse, therefore, has to be free of bias. No discourse should have an adverse impact on the freedom of press. The terms ‘textbook fascist’, ‘bully’ and ‘absolute authoritarian’ have been floated by academics and parroted by media. Prestigious institutions like Nehru Memorial Museum library provided patronage to anti-RSS and anti-Modi academics. The media is an important tool for transformation in society, and its freedom can be best ensured by its own credibility and self-restraint. It would do well to recall its once glorious role.
For instance, during the freedom movement, nine editors of the Swarajya published from Allahabad, in 10 years, suffered imprisonment on charges of sedition. An advertisement for its editor stated the service conditions as: “Two dry breads, one glass of water and 10 years imprisonment for every editorial.” In post-independent India, the media played a decisive role during the Emergency, and in national politics. It must shed its blinkers, i.e., its ideological predisposition which disconnects it from indigenous ideology and the masses.

Saturday, March 15, 2014

Nehru Knew He was Not What He Appeared to Be


Nehru Knew He was Not What He Appeared to Be


crucial issue—garnering almost no attention and remaining undebated—is Mahatma Gandhi’s suggestion to dissolve Congress and turn it into a Lok Seva Sangh. Why did he wish so? Congress, during the Gandhi era, inspired thousands to practice and follow purity and probity. Freedom fighters and Congress workers were almost synonymous. Gandhi was not oblivious to ambitions; cut-throat competition and hypocrisy too existed in Congress. He was afraid that thousands of workers, trained in anti-imperialist struggle to fight for righteousness and had inculcated the characteristic of renouncement, would either become irrelevant, or a venal system would co-opt them. Gandhi’s vision for struggle was not confined to ‘transfer of power’ or change of guard on the Delhi throne. He believed these trained idealists should be used to create democratic consciousness in society, which he considered the best mode to curb absolutism. He was thefirst modern Indian politician who drifted from Western-style politics and institutions. He was a critic of Westminster democracy and sharply criticised the nature and role of Parliament.
Gandhi drew his intellectual and moral strength from our traditional system of knowledge and concept of kingship. In our history, it is those kings who renounced most, based their rule on justice and preferred merit over kinship, who have been venerated as ideal rulers. Vikramaditya is revered for his commitment to larger interests. Gandhi expected political actors to follow the principle of life based on minimum materialism and maximum renouncement.
The extravagance of ‘swadeshi’ rulers and their joy upon the transfer of power, even as thousands were being massacred and millions going homeless and breadless, stunned Gandhi. He wrote to Nehru, “we are adopting British extravagance which the country cannot afford” and proposed to Nehru that “the Viceroy should reside in an unpretentious house and the present palace (later to be known as Rashtrapati Bhawan) should be more usefully used”. Mountbatten had happily accepted Gandhi’s proposal and the latter wrote back, “May I say how deeply I have appreciated your wish to go to an unpretentious house as the chosen Governor General of millions of the half-famished villagers of the nation.”
But this proposal was a discomfort for ‘socialist’ Nehru and he informed Gandhi of “difficulty in finding suitable accommodation and making arrangements for changing over, when we are so busy”. Why Nehru suppressed the proposal was revealed by his own action. Soon after the Mahatma’s demise, he shifted from his ‘small’ residence 17 York Road in the capital to Teen Murti house (spread over almost 22 acres), former residence of British commander-in-chief of the Indian Army. Michael Edwards wrote that Nehru moved into luxurious house “surrounding himself with guards, large cars, bodyguards on prancing horses, pomp and protocol”.
Nehru was not what he appeared to be, a fact he himself knew. He wrote in Modern Review (November 1937) under the anonymous name ‘Rashtrapati’ revealing he had a tendency to become dictatorial and needed to be checked. After Independence, when Congress was grappling with internal democracy, Nehru shrewdly created a psychological halo among partyworkers that he alone could save it from tottering. A national leader like Harekrushna Mahtab issued a press statement urging the ‘need’ for Nehru’s dictatorship in the interest of Congress and country. During the first general election, S K Sinha from Bihar proposed that Nehru should be solely authorised to select all 4,000 candidates for Lok Sabha and Assemblies. The subversion of democracy began with proxies of Nehru inside Congress. It is a paradox that despite knowing Nehru’s proclivities, Gandhi favoured him.

Monday, March 10, 2014

राहुल गांधी के नाम खुला पत्र :


प्रिय राहुल जी , 
कई वर्षो से आप राजनीति  में स्थान बनाने के लिए प्रयासरत हैं। आपके खानदान के किसी व्यक्ति को इतनी मसक्कत नहीं करनी पड़ी थी।इसकी वजह तो आप समझ ही  रहे होंगे। मोतीलाल नेहरू एक वरिष्ठ वकील थे।  उनकी बौद्धिकता भी स्थापित थी।  शायद आपको जानकारी होगी  कि  वे एक रिपोर्ट के Author भी थे जिसे नेहरू रिपोर्ट के नाम से जाना जाता है।  वे Independent  नमक आखबार के प्रकाशक और सम्पादक भी थे।  आपके नाना जवाहर लाल नेहरू के विचारो से विरोध हो सकता है पर उनकी अपने तरह की बौद्धिकता शक से परे था।  आखिर एक महान ग्रथ Discovery of India  के वे लेखक थे।  उन्होंने नेशनल हेराल्ड नमक आखबार  भी शुरू किया था  जिसकी  सम्पत्ति को  आपके  खानदान के आज के पुजारियों ने बेच डाला।  आपकी दादी इंदिरा गांधी देश की गूढ़ राजनीति को  समझ रखती  थी।  आपके  पिता राजीव गांधी की जीवन दृष्टि में आधुनिकता का बोध था। परन्तु   राजनीति में विवशता से  वे थोपे गए चेहरे थे।  वोट की समझ जरूर उन्हें थी  तभी तो धर्मनिरपेक्षता और आधुनिकता को ताक पर रखकर शाहबानो के प्रकरण में उन्होंने मुल्ला मौलवियो के सामने  घुटना टेक दिया और देश के Cr Pc  को भी धर्म के नाम पर बाँट  दिया।  बोफोर्स की दलाली करने वालो को बचाने  में उन्हें सत्ता गवाना पड़ा।  आपके स्वर्गीय पिता किसके दबाव में काम कर रहे थे इसका पता तो घर के लोगो को आधिकारिक तौर पर निश्चित रूप से अधिक होना चाहिए।  
आप बार बार अपनी दादी की  शहादत को याद करते है।  उनकी शहदात देश के लिए दुखदायी था और है।  उनसे वैचारिक भिन्नाता के बावजूद हम मानते हैं कि उनकी राष्ट्र के लिए प्रतिबद्धता अटूट थी।  आपके पिता और देश के तात्कालिन प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने अपनी स्वर्गीय माँ और देश की पूर्व प्रधानमन्त्री की हत्या पर जाँच आयोग बनाया था।  इसका नाम ठक्कर  आयोग था।  इसकी रिपोर्ट सरकार को सौपी गयी।  इसमें उनकी हत्या के अनेक आयामो पर प्रकाश डाला गया है।  कई गमनंदीर बाते कहीं गयी हैं , कई रहस्योद्घटान हुआ है।  क्या आप उससे अपरिचित हैं ? वे बाते सही या गलत हो सकती है  परन्तु आपकी सरकार , पार्टी एवं  आपकी माँ और कॉग्रेस की अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी कि चुप्पी रहस्य बना हुआ है ? क्या आपने वह रिपोर्ट पढ़ी है ? 
संघ पर आप ऐसी बाते कर रहे हैं जो बचकानी भी नहीं कही जा सकती है।  अपने खानदान की सबसे कमजोर कड़ी  और बौद्धिक रूप से शून्य होने के कारण ही आपअनरगल  बाते कर रहे हैं उन्ही में एक  संघ को गांधी का हत्यारा बताना  है ।  खैर , आप इसे न्यायलय में सावित कर पाये यह मैं भरोसा रखता हूँ।  ऐसे आपकी पार्टी के एक अध्यक्ष सीताराम केसरी  इस प्रश्न पर अपनी गलती मानकर माफी मांग चुके हैं।  स्व अर्जुन सिंह भी माफ़ी मांग चुके हैं।  एक स्तम्भकार ए  जी नूरानी स्टेट्समैन  अखबार में ऐसी ही बात लिखने के लिए न्यायालय में  माफ़ी मांग चुके हैं।  
आपकी बौद्धिकता और समझ की  प्रेरणा  श्रोत दिग्विजय सिंह जैसे लोग हैं।तो  उसके  अनुसार आपका व्यवहार और वाचलता  ठीक ही है। परन्तु  एक बात आपको बता देना मुनासिब है।  संघ की विचारधारा और संगठन को नेहरू 1948  में गलत लांक्षणा लगाकार और राज्य कि शक्ति का भरपूर दुर्पयोग करके भी कुचल नहीं पाये थे तो आप किस गलतफहमी के शिकार हैं?  ऐसे  मै  आपको आग्रह करूँगा कि यदि भारत को समझना चाहते हैं तो संघ की शाखा और प्रशिक्षण शिविर में जरुर जाये।  जिनकी हत्या पर आप आंसू बहा  रहे हैं वे सचमुच में महान थे।  वे दूसरो कि बौद्धिकता से निर्देशित नहीं होते थे।   तभी तो 1934  में महात्मा गांधी संघ का कैंप देखने वर्धा में गए थे।  उनके साथ जमुनालाल बजाज भी थे। 1947 के सितम्बर में दिल्ली में संघ के स्व्यंसेवको को सम्बोधित  किया और उनके प्रश्नो का जवाब दिया।    इसकी रिपोर्ट हिंदुस्तान टाइम्स  और सिविल एंड मिलिट्री गजट में छपी थी।  आपने जब ठक्कर  आयोग की रिपोर्ट को ही अनदेखा  कर दिया तो  गांधी हत्या पर बनी कपूर कमीशन की रिपोर्ट आप क्यों पढ़ेंगे?  
शुभकामानाओ के साथ 
राकेश सिन्हा 

Sunday, March 2, 2014

Realities Mirror Plural Khurshids and One Arif

Realities Mirror Plural Khurshids and One Arif. 


I’m not surprised at Salman Khurshid’s use of the term “impotent” for political rivals. Khurshid epitomises the new political culture where contemptuous, abusive and unparliamentary language has become common. More shocking is his mindset which is obvious from his writings. In his book At Home In India:A Restatement of Indian Muslims, he writes, “(On the other hand) there was also a terrible satisfaction among Muslims, who had not completely forgotten Partition’s unpleasant aftermath. Hindus and Sikhs were alike paying for their ‘sins’. They were paying for the blood they had drawn in 1947.” Indians would be grateful for enlightenment by Khurshid as to what ‘sin’ Hindus and Sikhs committed in 1947? The question which he himself has to answer is whether his views resemble people like Zakir Hussain and Maulana Azad or leaders of Khaksars and the Muslim League of pre-Partition days?
Tie and coat with an Oxford pedigree not necessarily  make any English-speaking Muslim liberal or secular, just as a beard and cap don’t negate it. Self-declared liberals, who have often times jettisoned their ideological moorings to stoke fundamentalism, are more dangerous than proclaimed fundamentalists, as they legitimise irrational demands, aspirations and ideology born of hostility, conspiracy theories and fear whipped up against imagined enemies. None other than Iqbal, a liberal scholar, and Jinnah, considered an ambassador of secularism, legitimised the Pakistan movement. There are umpteen examples even in post-independent India. For instance, Syed Shahabuddin, formerly a foreign service officer, abandoned his liberal mask and began professing communal demands after joining politics.
History is replete with examples when greed for power sabotages one’s conscience. This can be seen in the case of Khurshid too. He had once great admiration for RSS. The Motherland, an RSS daily (now defunct), published Golwalkar’s interview on August 23, 1972 in which he said that as long as personal laws do not pose any threat on unity, integrity and constitutional values, voice for progressive changes must emanate from the community itself. Apropos Golwalkar: “Nature abhors uniformity, which is the death-knell of nations. I’m all for the protection of various ways of life, but variety must supplement the nation’s unity and not range itself against it.” His exposition triggered an ideological debate. Describing Golwalkar as a statesman, he wrote (Motherland, August 25, 1972): “Frankly, I bow to Guru Golwalkar for the courage he has shown in expressing views which are more or less on similar lines as those of the late Dr Zakir Hussain.”
Alas, 1970s’ liberal Khurshid now feels his liberalism to be an albatross for his political career. His shift is more than obvious. He is a strong advocate of religion-based reservation. In 2010, he even favoured distributing enemy property, seized from traitors in 1947 and during Indo-Pak wars, among Muslim claimants. Its worth is at least Rs 1 lakh crore. The move to amend the Enemy Property Act was, however, thwarted by policy think-tanks. For Khurshid too, his liberalism was a short-term romanticism, and politics based on religious identity is a reality.
Ironically, another stellar example, Arif Mohammad Khan, a former president of AMU Students’ Union and a minister in the Rajiv Gandhi government, took a principled stand on the Shah Bano issue, much to the ire of Muslim fundamentalists, and preferred quitting office. Despite ups and downs, Arif’s secular ethos remains undiluted. Unfortunately, his credentials and world views are of no use for political parties, who prefer non-secular voice as more rewarding in terms of votes. Don’t the current political realities also mirror our responsibility for the two contrasting syndromes of plural Khurshids and singular Arif?

Thursday, February 20, 2014

Goan Model Shows the Way for Indian Muslims


Goan Model Shows the Way for Indian Muslims

Muslim voting behaviour unveils the community’s socio-psychological composition. A microscopic minority among them vote for the BJP, while the community prefers strategic bloc voting for strongest non-BJP candidate. Right or wrong, its ‘allergy’ to BJP has reasons. But the story doesn’t end here. There are two more ingredients of its sociology of voting. The natural preference is for the party or leader who targets Hindu organisations the maximum and supports their religious practices beyond constitutional bounds. Pertinently, the community is out of the ambit of the modernity debate. Therefore, any discussion on Uniform Civil Code—a part of the Directive Principles of the State Policy—becomes a ‘communal discourse’. The Constitution’s project of secularisation is limited to Hindus only. When the Hindu Code Bill was introduced in Lok Sabha, socialist Kripalani described the government as communal since the bill omitted non-Hindus. That was the beginning of pseudo-secularism, a trend that has continued. Elections only strengthen anti-secular convictions.
While the country is witnessing an anti-Congress wave with the 2014 elections round the corner, the Muslim leadership is trying to convince its flock to ignore the question of corruption and miseries of their lives. Islamic Voice, published from Bangalore, in a recent editorial advised, “Politically unaffiliated Muslim intellectuals and activists should come forward to tilt the support towards winnable, secular alternatives on regional basis.”
Hate for BJP doesn’t mean love for ‘others’, who’re a compulsion in the given situation. Before Independence, Indian Muslims rejected the Congress for the very reasons they loathe the BJP. In 1937, Congress ministries were formed in several states of India. The All India Muslim League published the Pirpur Report, Shariff Report and Kamal Yar Jung Report against provincial Congress governments, dubbing them as ‘Hindu Raj’. The league’s ceaseless propaganda was countered by the Congress’ Mass Contact Programme, a brainchild of Nehru. It proved in vain. Come the 1946 general election, Congress’ secularism found no adherence among Muslims.
Therefore after Independence, it was a great opportunity for Congress to mend social philosophy with an objective of Indianising Indian Muslims. The Constituent Assembly had shown the path. During the debate on minority rights, Muslim League member Tajamul Hussain said majority and minority was a British creation and wanted to evict this term from the lexicon. H C Mukherjee, a Christian by faith, and vice-chairman of the Assembly, warned that institutionalising any community as minority on the basis of religion would be detrimental to idea of one nation.
However, real politics abhors idealism. Nehru planted fresh seeds for religious polarisation in election. J B Kripalani contested the 1963 by-polls from the Amroha constituency. Nehru wanted to prevent him from entering Parliament. The Central Parliamentary Board decided on the candidature of Ram Saran. But Nehru sprang a surprise on the final day of nomination, replacing Saran with Hafiz Mohammad Ibrahim, a Union cabinet minister. Kripalani prevailed, but the election witnessed invoking of religious sentiments and promises. Kripalani was no Hindu Mahasabhite, but a Socialist and former Congress president with impeccable secular credentials. Nevertheless, all attempts were made to polarise Muslims against ‘Hindu’ Kripalani.
In the Goa Assembly elections, Catholics disillusioned with anti BJP-RSS propaganda voted for the BJP. There are five Christian MLAs, including deputy CM of the state. The Goan model of voting shows increasing emergence of critical consciousness among a section of Indian Christians. Will it impact Indian Muslims or will they remain captive to their votebank merchants? 

http://www.newindianexpress.com/opinion/Goan-Model-Shows-the-Way-for-Indian-Muslims/2014/02/16/article2058765.ece?utm_content=buffer41e51&utm_medium=social&utm_source=twitter.com&utm_campaign=buffer#.UwbfG2KSz2N

Saturday, January 18, 2014

भाजपा के भीतर और बाहर की चुनौतिया


"भाजपा के भीतर और बाहर की चुनौतिया"
"उठो पार्थ और गांडीव संभालो"


मैंने एक ट्वीट किया कि भाजपा को अपने कार्यसमिति के सदस्यो एवं प्रांतो के सभी पदाधिकारियो को निर्देश देना चाहिए कि वे अपनी  संपत्ति की घोषणा करे।  एक मित्र ने जवाब दिया कि Media इसे AAP Effect कहकर आलोचना करेगी।  मैंने पूछा कि दीनदयाल जी का जन्म पहले हुआ था कि AAP का ?हम अपनी  विरासत से सीखे उसके अनुसार  चले।  लम्बी राजनीतिक यात्रा में अनेक बुराइया  आ जाती हैं।  इसका मतलब नहीं कि आंदोलन या दल के  बुनियाद और भविष्य पर प्रश्न लग गया है।  चीन की  कम्युनिस्ट पार्टी या पूर्व सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी में पूंजीवादी बुराइया आती रही और वे इसे स्वीकार कर दूर करते रहे।  भारतीय जानसंघ ने अपनी 22  वर्षो कि यात्रा में अनेक बार वैचारिक और मूल्यो के स्तर  पर सुधार किया था।  इस सुधा की  प्रक्रिया में तात्कालिक  क्षति भी हुई थी।  अनेक प्रभावशाली कार्यकर्त्ता नाराज और निराश हुए थे।  ऐसा लगा कि संगठन को अपूर्णीय   क्षति हो रही है परन्तु न ऐसा हुआ न होगा।  संघ के सरसंघचालक श्री मोहनभागवत  जी ने एक बार अपने भाषण  में इस बात को रेखांकित किया था "संघ में कोई भी क्षति अपूरणीय नहीं होती है , अशान्तनवीय  जरूर होता है। "

 सहजता, सरलता , सादगी हमारी पूँजी रही है।   एक घटना सुनिये।  दीनदयाल जी और अटल जी दोनों संघ के मुख पत्र  'पांचजन्य' में काम करते थे।  अटल जी की हवाई चप्पल टूट गयी।  दीनदयाल जी से पैसे माँगा चप्पल खरीदने के लिए।  दीनदयाल जी ने उन्हें दो आना दिया टूटी चप्पल को ठीक करने के लिए।  आधुनिकता के नाम पर हम विरासत को नहीं दफना सकते हैं।  समय के अनुसार अनेक बदलाव आना चाहिए परन्तु समय सादगी को भी बदल दे यह कैसा बदलाव है ? उलटे दक्षिणपंथ के दबाव और उसकी बुराइयों से बचने से दल के प्रति आकर्षण कम नहीं बल्कि अधिक होगा ।  हाल के वर्षो में दस राजेंद्र प्रसाद रोड(एक ही फ्लैट ) ,नई  दिल्ली, में संघ के प्रचारक श्री जे पी माथुर, सुन्दर सिंह भंडारी , कैलाशपति मिश्र किस सादगी के साथ   रहते थे यह अभी  विस्मृत नहीं हुआ  है।   नेतृत्व की यह सादगी  हमारी विशेषता  रही है।  आज लाखो कार्यकर्त्ता नेतृत्व से अपने लिए कुछ भी अपेक्षा नहीं करते हैं।  वे तो संघ आंदोलन और विचारो से  प्रेरित होकर भाजपा को सत्ता में लाना चाहते हैं इसलिए मन मारकर वे  कभी कभी कुछ बुराइयों पर भी आँखे बंद कर लेते है।  भाजापा उसी जनसंघ संस्कृति की पहचान और यात्रा का अंग है।  दीनदयाल जी और जनसंघ ने सबसे पहले   VIP culture पर सवाल उठाया था।  जबलपुर ट्रक कि फैक्ट्री का उद्घाटन करने पंडित जवाहरलाल नेहरू गए थे।  दीनदयालजी ने अपनी Political Diary   में लिखा कि जितना खर्च बड़े ऑफिसर्स और प्रधानमंत्री के जाने आने और व्यवस्था में हुई वह तो ट्रक की कीमत से भी अधिक थी। आखिर पैसा तो जनता  का ही लूट रहा है। उन्होंने लिखा कि " केवल प्रधानमंत्री ही नहीं बल्कि अन्य बहुत से महत्वपूर्ण व्यक्तियो (VIPs ) ने  भी इस समारोह में उपस्थित रहने के लिए  समय निकाल लिया।  …जहां सर्कार के इतने बड़े -बड़े अधिकारी  एक साथ उपस्थित हो , तो यह कितनी अशालीनता  होती  यदि अधिकारियो का समूह उनकी 'खिदमत में हाजिर' नहीं रहे!  यह अनुसन्धान करना काफी रोचक होगा कि  इस समारोह में एकत्र ' अति महत्व्पूर्ण व्यक्तियो' और 'अनति महत्व्पूर्ण व्यक्तियो'  द्वारा कितनी राशी  यात्रा -भत्ते के रूप में वसूल की गयी "  क्या यह प्रसंग आँख खोलने वाला नहीं है? 
किसी पार्टी को इस बात का ख्याल तो रखना ही पड़ेगा कि उसके कार्यकर्त्ताओ में कैसी प्रवृत्ति विकसित हो रही है ? कार्यकर्ता संघ से उपजे स्वयंसेवको के बीच ही अपना  पुरुषार्थ दिखा रहे हैं या समाज के बड़े वर्ग के साथ रचनात्मक संवाद कर रहे हैं ? नव धनाढ्य  वर्ग पार्टी को सहायता करने के नाम पर इसकी विरासत को कही कुतरने का काम तो नहीं कर रहा  है ? धनपशुओं की  परिक्रमा कहीं नए कार्यकर्त्ताओ को बिगार तो नहीं रहा है ? वे लिखते हैं , " भिन्न भिन्न राजनीतिक  दलो को अपने लिए एक दर्शन (सिद्धांत या आदर्श) का क्रमिक विकास करने का प्रयत्न  करना चाहिए।  उन्हें कुछ स्वार्थो की पूर्ती के लिए एकत्र आने वाले लोगो का समुच्चय  मात्र नहीं बनना चाहिए।  उसका रूप किसी व्यपारिक प्रतिष्ठान  या Joint Stock  Company से अलग प्रकार का होना चाहिए।"
दक्षिणपंथी हम न कल थे न रहंगे। जब जनसंघ छोटी पार्टी थी और जब तब एक- एक वोट और एक  एक विधान सभा सीट के लाले पड़े थे, तब भी पार्टी ने जिस  संघ- संस्कृति के अनुसार अपने को ढालने का काम किया और रास्ते के हर रोड़े को हटाया।  दलमें  एक  तबका था जो स्वतंत्र पार्टी से जनसंघ का विलय चाहता था।  इसमें श्री बलराज मधोक जैसे वरिष्ठतम लोग भी थे।  दीनदयाल जी ने स्वतंत्र पार्टी की नीतियो पर सवाल  खड़ा किया और पूछा 'जिन कारणो से स्वत्तंत्र पार्टी का जन्म  हुआ था क्या वे कारण  समाप्त हो गए हैं , यदि हो गए हैं तो विलय हो सकता है अगर नहीं हुए हैं तो विलय का कोई प्रश्न नहीं उठता है।" स्वतंत्र पार्टी का चिंतन शुद्ध पूंजीवादी था।  यह जनसंघ को स्वीकार नहीं था।  दीनदयाल जी ने वामपंथ और दक्षिणपंथ दोनों ही categories को भारत के अनुकूल नहीं माना था।  वे जनसंघ को परवर्तनेच्छु(Pro Change ) श्रेणी में  रखते थे।  तभी तो जनसंघ ने राजस्थान  में  आठ में से पांच MLAs को पार्टी से इसलिए निकाल दिया कि  वे जागीरदारी को समप्त करने  का विरोध कर रहे थे।  जनसंघ ने जागीरदारी और जमींदारी के विरोध में जो नीति अपनाई  थी वह प्रगतिशील था और नेहरू भी उसके समक्ष फीके पड़ गए थे।  यह उस काल की बात है जब जनसंघ एक एक पाई के लिए मुहताज होता था। जो लोग जनसंघ को दक्षिणपंथी कहकर आलोचन करते रहे वे या तो इतिहास से अपरिचित हैं या तथ्यो के साथ खेलना उनका धर्मं ही है।  भारतीय राजनीती में ऐसी जोखिम उठाने के बाद ही जनसंघ दिनों दिन जनप्रिय बनता गया।  दीनदयाल जी कोंग्रेस के कुलीन  राजनीती और वामपंथियो के दोहरे चरित्र के लिए सबसे बड़े Disconfort  बनकर उभरे थे। उनका असमायिक निधन लम्बे समय के लिए शून्यता पैदा कर गया।  
नव उदारवादी आर्थिक नीति  ने नव धनाढ्य वर्ग पैदा किया है।  उनकी अपनी अहमियत  अपनी जगह है परन्तु जिस देश में 55 प्रतिशत लोग Multidimensional poverty Index के अंदर आते हो , जिस देश में School drop outs  अफ़्रीकी देशो से भी अधिक या उसके बराबर हो ,महिलाए  सड़को पर प्रसूति कर रही हों , अस्पताल में इलाज के लिए लोग चिकित्सको की जगह नेताओ के  यहाँ चक्कर लगा रहे हों , फल खाना luxury बन गया हो उस देश के राजनितिक दलो को अपना आर्थिक एजेंडा तो वैचारिक धरातल पर pro poor  रखना ही होगा।  संसद में पहुंचनेवाले लोगो की आर्थिक हालत और सार्वजनिक छवि देखनी ही पड़ेगी।  चार्टर्ड अकाउंटेंट के सर्टिफिकेट ईमानदारी के प्रमाणपत्र नहीं होते हैं।  
महँगी गाड़ी, महँगी कलम ,डिज़ाइनर कपडे राजनीती में प्रविष्ट दक्षिणपंथी प्रभाव का सूचक है।  भाजापा की पूँजी संघ संस्कृति है।  सामूहिक  नेतृत्व और सरल जीवन इसके दो अवयव हैं।  जे पी संघ के निकट क्यों आये ? समाजवादी राम मनोहर लोहिया जनसंघ  के करीब क्यों हुए ? हमारी ईमानदारी , जनता के लिए प्रतिबद्धता  , सरल जीवन राजनीतिक  विरोधियो को भी हमसे जोड़ता एवं  प्रभावितकरता  रहा है। राजनीतिक  संस्कृति को सुधारने  के लिए कभी कभी कसाई (butcher) की  तरह भूमिका अदा करनी पड़ती है। ढलती राजनीतिक  संस्कृति ने ही भारत के वामपंथी पार्टिया जो 9 % वोट लेती रही थी को अब अप्रासंगिक बना दिया है।  समाजवादी पार्टिया तो टिपण्णी के योग्य भी नहीं रही हैं।   
आज भाजापा देश में आशा का केंद्र है।  इसका जनाधार सबसे बड़ा है।  इसके पास मंजे हुए नेता और  प्रतिबद्ध कार्यकर्ता है।  सिर्फ चोरदरवाजे और मायावी धनपशुओं और Anglicized तबके के छ्द्म समर्पण से उसे बचाना है।  वे आज पार्टी को दक्षिणपंथी रुझान और कॉर्पोरेट परस्ती के रास्ते पर ले जाना चाहते हैं।  इसे रोकना चाहिए।   मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी लोहिया जी के प्रति कृतज्ञता है या उनपर मर्त्यपरांत हमला ?
आज देश की जो हालत है उसमे भाजापा का सत्ता में आना हर हालत में जरूरी है।  देश की अस्मिता पर ही सवाल उठने लगा है।  सबसे बड़ी बात है कि भाजपा को रोकने के लिए CIA  एवं अमेरिकी और जमर्नी  की  संस्थाए जिसमे  सोशलिस्ट इंटरनेशनल ,फोर्ड  फाउंडेशन आदि शामिल है परोक्ष हस्तक्षेप कर रही हैं। दस सालो में सम्प्रभूता और सम्मान , (आर्थिक)समानता की बली चढ़ा  दी गयी है।  करो यामरो  के spirit से चुनावी लड़ाई तो लड़नी चाहिए  परन्तु इस क्रम में सेंधमारों से बचने के लिये चौकीदारी भी करते रहना चाहिए।  राजनीती एक मिशन है और सामाजिक सरोकार इसकी better half है। सामान्य व्यक्ति कितना मूर्छित है और प्रमारगत राजनीती और उसके Actors से कितना उब चूका है यह देखने के लिए पश्चिम के किसी विद्वान की पुस्तक पढ़ने या किसी विशेषज्ञ से ज्ञान लेने की आवश्यकता  नहीं है।  सिर्फ अगल बगल झाकने की जरूरत है।  यह कार्य सिर्फ भाजपा ही कर सकती है  चाहे जितनी प्रसव पीड़ा  हो।